Jur Sital 2020 : मिथिला का परंपरागत त्योहार जूड़ शीतल आज, जानें किन कारणों से मनाया जाता है यह पर्व और क्या है इसका महत्व
Jur Sital 2020: भारतीय पर्व -त्योहार के वैज्ञानिक चिंतन को प्रत्यक्ष करनेवाला मिथिला का लोकपर्व जूड़ शीतल आज 14 अप्रैल, मंगलवार को मनाया जा रहा है. त्योहार मनाने वाले परिवारों के चूल्हे का आज 'लॉकडाउन' रहेगा. पूरे मिथिलांचल का यही हाल देखने को आज मिलेगा.इस पर्व की शुरुआत बड़े- बुजुर्गों के द्वारा अपने परिजनों के सिर पर आज सुबह शीतल जल डाल उन्हे जुड़ाने से होती है.गरमी बढ़ने के साथ अधिक से अधिक जल सेवन की ओर ध्यान खींचने वाली परंपरा के साथ कादो-माटि (कीचड़ -मिट्टी) खेला जाता है. लोग एक-दूसरे के शरीर पर कादो-माटि लगाते हैं. ग्रीष्म-ऋतु में मिट्टी के लेप से तीखी धूप के कारण बढ़ने वाले त्वचा रोग से बचाव लगाने का संकेत मिलता है.आयुर्वेदाचार्य डॉ प्रभाष चंद्र मिश्र इसे पुष्ट करते हुए बताते हैं,कि तालाब-नदी की तलहटी की मिट्टी का लेप त्वचा पर लगाने से पुराने त्वचा रोग से जहां मुक्ति मिलती है, वहीं प्राय: नये रोग भी नहीं होते. दूसरी ओर एक-दूसरे पर कादो डालने की इस परंपरा से जलाशयों की उड़ाही का भी संदेश मिलता है.
जूड़शीतल पर दरभंगा से नवेंदु की रिपोर्ट :
Jur Sital 2020 : भारतीय पर्व -त्योहार के वैज्ञानिक चिंतन को प्रत्यक्ष करनेवाला मिथिला का लोकपर्व जूड़ शीतल आज 14 अप्रैल, मंगलवार को मनाया जा रहा है. त्योहार मनाने वाले परिवारों के चूल्हे का आज ‘लॉकडाउन’ रहेगा. पूरे मिथिलांचल का यही हाल देखने को आज मिलेगा.इस पर्व की शुरुआत बड़े- बुजुर्गों के द्वारा अपने परिजनों के सिर पर आज सुबह शीतल जल डाल उन्हे जुड़ाने से होती है.गरमी बढ़ने के साथ अधिक से अधिक जल सेवन की ओर ध्यान खींचने वाली परंपरा के साथ कादो-माटि (कीचड़ -मिट्टी) खेला जाता है. लोग एक-दूसरे के शरीर पर कादो-माटि लगाते हैं. ग्रीष्म-ऋतु में मिट्टी के लेप से तीखी धूप के कारण बढ़ने वाले त्वचा रोग से बचाव लगाने का संकेत मिलता है.आयुर्वेदाचार्य डॉ प्रभाष चंद्र मिश्र इसे पुष्ट करते हुए बताते हैं,कि तालाब-नदी की तलहटी की मिट्टी का लेप त्वचा पर लगाने से पुराने त्वचा रोग से जहां मुक्ति मिलती है, वहीं प्राय: नये रोग भी नहीं होते. दूसरी ओर एक-दूसरे पर कादो डालने की इस परंपरा से जलाशयों की उड़ाही का भी संदेश मिलता है.
वैसे इस परंपरा ने अब विकृत रूप धारण कर लिया है.अब लोग नाले तक की मिट्टी एक-दूसरे पर डाल देते हैं.जूड़शीतल के दिन मिथिला में चूल्हा नहीं जलाया जाता है.त्योहार के एक दिन पूर्व यानी सतुआनी की रात तैयार बड़ी-भात का प्रसाद अपने ईश को भोग लगा लोग ग्रहण करते हैं.साथ ही बड़ी-भात इतनी मात्रा में तैयार किया जाता है, जिससे अगले दिन यह भोजन के लिए पर्याप्त हो.यही कारण है कि इसे बिसया पबिन भी कहा जाता है.चूल्हे पर दही, बासी बड़ी व भात चढ़ाने की परंपरा है.
जलसंचित करने का मिलता है संकेत :
त्योहार से एक दिन पूर्व रात में प्राय: सभी बरतनों में पानी भर लिया जाता है. यह गरमी में पानी की किल्लत को देखते हुए जल संचित रखने की ओर संकेत देता है. दूसरी ओर बाढ़ के बाद मिथिला क्षेत्र में सर्वाधिक तबाही अगलगी से मचती है. इससे बचाव के लिए पानी भरकर रखने व दिन में चूल्हा नहीं जलाने से भी लोग जोड़कर देखते हैं.
सड़कों पर छिड़का जाता पानी :
बहनें सड़कों पर बासी पानी पटा भाइयों के आगमन की बाट शीतल करती हैं. यह इस मौसम में धूल के गुबार से बचने का माध्यम बनता है. कई इलाकों में तो आज भी जूड़ शीतल से प्रारंभ सड़कों पर पानी छिड़काव का क्रम पूरे महीना तक चलता है.
पेड़-पौधों में पानी डालने की परंपरा :
जूड़ शीतल में छोटे पौधों से लेकर बड़े वृक्ष तक में पानी डालने, अहर्निश प्राण-वायु (ऑक्सीजन) प्रदान करनेवाले तुलसी के पौधे पर पनिसल्ला डालने का चलन है. यह बदलते मौसम में वनस्पति संरक्षण की ओर भी ध्यान खींचता है. हालांकि लॉक डाउन की वजह से इस बार परंपरा निर्वाह होना कठिन है. कोरोना वायरस के संक्रमण को देखते हुए काफी सीमित विध-विधान के साथ ही घरों में जूड़शीतल मनाया जाएगा.अपने स्तर से सजल घट दान व तुलसी के पौधों पर पनिसल्ला टांगने के साथ अन्य हर संभव परंपरा का निर्वाह व्यक्तिगत स्तर पर करने की तैयारी में लोग जुटे हैं.
क्या है जूड़शीतल की तिथि को लेकर विद्वानों की राय:
सतुआनी व जूड़शीतल की तिथि को लेकर संशय के प्रश्न पर विश्वविद्यालय पंचांग के संपादक सह संस्कृत विश्वविद्यालय के पूर्व कुलपति पंडित रामचंद्र झा कहते हैं कि इस बार तिथि को लेकर संशय का कोई प्रश्न ही नहीं है. कारण मेष संक्रांति सोमवार को ही है. इसिलए पुण्यकाल से संबंधित सभी कार्य लोगों ने आज संपन्न किया. इसके अनुसार सतुआनी भी मनाया. निर्विवाद रूप से मंगलवार को इसी अनुसार जूड़शीतल मनाया जायेगा. सभी पंचांग की दृष्टि से भी यही तिथि है.पं. झा कहते हैं कि अंग्रेजी तिथि को लेकर लोगों में कुछ त्योहार की तिथि को लेकर भ्रम की स्थिति बन जाती है. अक्सर यह पर्व 14 को होता है, लेकिन इसका आधार संक्रांति है, न कि तिथि. इसी वजह से किसी साल 13 तो किसी वर्ष 14 अप्रैल को यह पर्व मनाया जाता है.