तप व ध्यान की पराकाष्ठा है भगवान महावीर का जीवन

भगवान महावीर का संपूर्ण जीवन तप और ध्यान की पराकाष्ठा है, इसलिए वह स्वतः प्रेरणादायी है. भगवान के उपदेश जीवनस्पर्शी हैं, जिनमें जीवन की समस्याओं का समाधान निहित है. भगवान महावीर चिन्मय दीपक हैं. दीपक अंधकार का हरण करता है.

By Prabhat Khabar News Desk | April 1, 2023 2:55 PM
an image

ललित गर्ग, आध्यात्मिक लेखक, दिल्ली

भगवान महावीर का संपूर्ण जीवन तप और ध्यान की पराकाष्ठा है, इसलिए वह स्वतः प्रेरणादायी है. भगवान के उपदेश जीवनस्पर्शी हैं, जिनमें जीवन की समस्याओं का समाधान निहित है. भगवान महावीर चिन्मय दीपक हैं. दीपक अंधकार का हरण करता है, किंतु अज्ञान रूपी अंधकार को हरने के लिए चिन्मय दीपक की उपादेयता निर्विवाद है. वस्तुतः भगवान के प्रवचन और उपदेश आलोक पुंज हैं.

महावीर जी के उपदेश

आज मनुष्य जिन समस्याओं से और जिन जटिल परिस्थितियों से घिरा हुआ है, उन सबका समाधान महावीर के दर्शन और सिद्धांतों में समाहित है. जरूरी है कि महावीर ने जो उपदेश दिये, उन्हें हम जीवन और आचरण में उतारें. महावीर जिस युग में जन्मे, समाज जाति और वर्ण के नाम पर बंटा हुआ था. व्यक्ति का वैभव केवल सोने-चांदी से नहीं, बल्कि इससे भी गिना जाता था कि किसके पास कितने दास-दासी हैं? इन्हीं स्थितियों में नारी उत्पीड़न, दास-प्रथा, जातिवाद, बढ़ती हुई क्रूरता और सामाजिक विषमता साधारण बात थी. ऐसे में क्षत्रिय कुण्डनपुर के राजा सिद्धार्थ और महारानी त्रिशला के घर-आंगन में एक तेजस्वी शिशु ने जन्म लिया. वह शुभ वेला थी- चैत्र शुक्ला त्रयोदशी की मध्य रात्रि. गर्भाधान के साथ ही बढ़ती हुई सुख-संपदा को देख बालक का नामकरण किया गया- वर्धमान. नन्हें शिशु के अबोले पर सक्षम आभामंडल का ही प्रभाव था कि पुत्र जन्म की बधाई देने वाली दासी प्रियंवदा को आभूषणों का उपहार ही नहीं मिला, बल्कि महाराजा सिद्धार्थ ने सदा-सदा के लिए उसे दास्य कर्म से मुक्त कर दिया. जैन धर्म के अनुसार, कोई भी तीर्थंकर अतिमानव अवतार के रूप में नहीं, अपितु सामान्य व्यक्तियों की तरह ही जन्म लेते हैं.

महावीर जन्म से ही अतींद्रिय ज्ञानी थे

राजप्रसाद में जन्म लेने पर भी महावीर के मन में शाही वैभव के प्रति कोई आकर्षण नहीं था. शोषण और संग्रह की त्रासदी से पीड़ित लोकजीवन को हिंसा और परिग्रह के अल्पीकरण का पथ दिखाकर उन्होंने मनुष्य के हाथ में निरंकुश वृत्तियों की लगाम थमा दी. संसार के विरक्त व्यक्तियों को उन्होंने हिंसा, असत्य, चोरी, अब्रह्मचर्य और परिग्रह से सर्वथा मुक्त रहने का उपदेश दिया, किंतु जिनमें इतनी क्षमता नहीं थी, उन्हें हिंसा और परिग्रह को सीमित करने, परिहार्य असत्य और चोरी से बचने तथा विवाहित स्त्री और पुरुष के अतिरिक्त ब्रह्मचर्य का पालन करने की दिशा दिखायी. महावीर जन्म से ही अतींद्रिय ज्ञानी थे. उन्होंने कहा- तुम जो भी करते हो- अच्छा या बुरा, उसके परिणामों के लिए तुम खुद ही जिम्मेदार हो. सुख-दुख के तुम स्वयं सर्जक हो. भाग्य तुम्हारा हस्ताक्षर है. भगवान महावीर उपदेश/दृष्टि देते हैं कि धर्म का सही अर्थ समझो. धर्म तुम्हें सुख, शांति, समृद्धि, समाधि, आज, अभी दे या कालक्रम से दे, इसका मूल्य नहीं है. मूल्य है धर्म तुम्हें समता, पवित्रता, नैतिकता, अहिंसा की अनुभूति कराता है. महावीर का जीवन हमारे लिए इसलिए महत्वपूर्ण है कि उसमें सत्य धर्म के व्याख्या सूत्र निहित हैं. महावीर ने उन सूत्रों को ओढ़ा नहीं था, साधना की गहराइयों में उतरकर आत्म-चेतना के तल पर पाया था. आज महावीर के पुनर्जन्म की नहीं, बल्कि उनके द्वारा जीये गये आदर्श जीवन के अवतरण की/पुनर्जन्म की अपेक्षा है. जरूरत है हम बदलें, हमारा स्वभाव बदले और हम हर क्षण महावीर बनने की तैयारी में जुटें, तभी महावीर जयंती मनाना सार्थक होगा.

महावीर बनने की कसौटी

महावीर बनने की कसौटी है-देश और काल से निरपेक्ष तथा जाति और संप्रदाय की कारा से मुक्त चेतना का आविर्भाव. भगवान महावीर एक कालजयी और असांप्रदायिक महापुरुष थे, जिन्होंने अहिंसा, अपरिग्रह और अनेकांत को तीव्रता से जीया. जहां अहिंसा, अपरिग्रह की चर्चा होती है, वहां भगवान महावीर का यशस्वी नाम स्वतः ही आ जाता है. उन्होंने कहा- मूर्च्छा परिग्रह है, उसका विवेक करो. जबकि आज की समस्या है- पदार्थ और उपभोक्ता के बीच आवश्यकता और उपयोगिता की समझ का अभाव. जिंदगी की भागदौड़ में एक ही मकसद बन गया है- संग्रह करो, भोग करो.

महावीर की शिक्षा

महावीर की शिक्षाओं के विपरीत हमने मान लिया है कि संग्रह ही भविष्य को सुरक्षा देगा, जबकि यह हमारी भूल है. जीवन का शाश्वत सत्य है कि इंद्रियां जैसी आज हैं, भविष्य में वैसी नहीं रहेंगी. क्या आज का संग्रह कल भोगा जा सकेगा, जब हमारी इंद्रिया अक्षम बन जायेंगी. महावीर का दर्शन था खाली रहना. इसीलिए उन्होंने जन-जन के बीच आने से पहले, अपने जीवन के अनुभवों को बांटने से पहले, कठोर तप करने से पहले, स्वयं को अकेला बनाया, खाली बनाया, जीवन का सच जाना. फिर कहा- अपने भीतर कुछ भी ऐसा न आने दो, जिससे भीतर का संसार प्रदूषित हो. न बुरा देखो, न बुरा सुनो, न बुरा कहो. यही खालीपन का संदेश सुख, शांति, समाधि का मार्ग है. दिन-रात संकल्पों-विकल्पों, सुख-दुख, हर्ष-विषाद से घिरे रहना, कल की चिंता में झुलसना तनाव का भार ढोना, ऐसी स्थिति में भला मन कब कैसे खाली हो सकता है? कैसे संतुलित हो सकता है? कैसे समाधिस्थ हो सकता है? इन स्थितियों को पाने के लिए वर्तमान में जीने का अभ्यास जरूरी है. न अतीत की स्मृति और न भविष्य की चिंता. जो आज को जीना सीख लेता है, समझना चाहिए उसने मनुष्य जीवन की सार्थकता को पा लिया है और ऐसे मनुष्यों से बना समाज स्वस्थ हो सकता है, समतामूलक हो सकता है.

पांच लाख लोगों को बारहव्रती श्रावक बनाया

भगवान महावीर सचमुच प्रकाश के तेजस्वी पुंज और सार्वभौम धर्म के प्रणेता हैं. उन्होंने व्रत, संयम और चरित्र पर सर्वाधिक बल दिया था और पांच लाख लोगों को बारहव्रती श्रावक बनाकर धर्म क्रांति का सूत्रपात किया था. यह सिद्धांत और व्यवहार के सामंजस्य का महान प्रयोग था.

भगवान के उपदेश जीवनस्पर्शी हैं

भगवान महावीर का संपूर्ण जीवन तप और ध्यान की पराकाष्ठा है. भगवान के उपदेश जीवनस्पर्शी हैं, जिनमें जीवन की समस्याओं का समाधान निहित है. दीपक अंधकार का हरण करता है, किंतु अज्ञान रूपी अंधकार को हरने के लिए चिन्मय दीपक की उपादेयता निर्विवाद है. वस्तुतः भगवान के प्रवचन और उपदेश आलोक पुंज हैं. महावीर जयंती मनाते हुए हम केवल महावीर को पूजे ही नहीं, बल्कि उनके आदर्शों को जीने के लिए संकल्पित हों.

Exit mobile version