Mahashivratri 2023: द्वादश ज्योतिर्लिंगों में से एक रावणेश्वर वैद्यनाथ की महत्ता से प्रायः तमाम भारतवासी परिचित हैं. ज्योतिर्लिंगों में अनादिकाल से वैद्यनाथ की प्रसिद्धि अन्यतम रही है. चिताभूमि, हृदय पीठ और ज्योतिर्लिंग की अवस्थिति के कारण वैद्यनाथ क्षेत्र की महत्ता किसी भी शैव एवं शाक्त पीठ की अपेक्षा अधिक है. शिव-शक्ति एक ही अद्वय शक्ति का द्वैताभास हैं. शिव-शक्ति अविनाभाव संपन्न हैं, एक के बिना दूसरे की स्थिति नहीं. वैद्यनाथ क्षेत्र में जहां रावणेश्वर ज्योतिर्लिंग हैं, वहां साम्भवोपाय की प्रधानता है और जहां हृदयपीठ है, वहां शाक्तोपाय की मुख्यता है. यहां हमारे विचार करने का तात्पर्य ज्योतिर्लिंग वैद्यनाथ से है. श्री वैद्यनाथ मंदिर शैवपीठ है. श्री पार्वती मंदिर हृदयपीठ-शक्तिपीठ है. भारत में शिव मंदिर और शाक्त मंदिर का निदान कलश के ऊपर स्थापित त्रिशूल से स्पष्ट किया जाता है. सूर्यमंदिर और विष्णुमंदिर का निदान चक्र है.
गणेश मंदिर का निदान त्रिशूल है. यानी एक ही प्रकार के बने मंदिर में यदि त्रिशूल की स्थापना की जाये, तो वह शिव, शक्ति और गणेश में से किन्हीं भी एक का मंदिर होगा और यदि उस पर चक्र स्थापन हो, तो वह सूर्य या विष्णु का मंदिर होगा. त्रिशूल एवं चक्र मंदिर के गर्भगृह में स्थापित मुख्य अधिपति देवता के निदान होगा. भारत के सभी द्वादश ज्योतिर्लिंगों एवं बांग्लादेश, पाकिस्तान समेत सभी 51 शक्तिपीठों के मंदिरों में निदान के रूप में कलश के स्थान पर त्रिशूल की स्थापना है. इन मंदिरों की वास्तुकला शैलियों में भिन्नता के दर्शन तो होते हैं, किंतु त्रिशूल के दर्शन सभी में निदान रूप में एक जैसे प्राप्त हैं. इनमें एकमात्र श्री वैद्यनाथ मंदिर है, जहां त्रिशूल के स्थान पर पंचशूल स्थापित है. ऐसा क्यों या कब से है, इस विषय में स्पष्ट निर्देश के रूप में कुछ भी प्राप्त नहीं है.
त्रिशूल, पंचशूल या चक्र को स्थापित करने का संबंध प्रासाद-पुरुष से है और प्रासाद-पुरुष की महत्ता उसके गर्भगृह में सदा वास करने वाले देवता तत्व से है. शक्तिपीठों एवं ज्योतिर्लिंगों के शैवपीठों की विशेषता इसमें है कि वहां पहले देवता का वास हो चुका है, तब प्रासाद-पुरुषों का निर्माण होता है, जबकि व्यक्तिगत रूप से या सामाजिक रूप से प्रतिष्ठित किये जाने वाले देव स्थानों में पहले मंदिरों का निर्माण होता है, फिर देव-स्थापन का कार्य होता है. रावणेश्वर या कि रामेश्वर की स्थापना पहले हो चुकी थी, पीछे मंदिर का निर्माण हुआ. वैद्यनाथ मंदिर के निर्माण के पीछे कोई विशेष दृष्टि जरूर रही होगी, जिसके तहत इस प्रासाद-पुरुष के शीर्ष पर कलश के ऊपर त्रिशूल के स्थान पर पंचशूल स्थापित हुआ.
वैद्यनाथ मंदिर के शिखर पर स्थापित पंचशूल एक ओर उपास्य शिव की पंचकृत्यकारिता का और दूसरी ओर उपासकों की पंचकंचुकबद्धता के निरसन के लिए दिये गये उपायों का संकेत है. वैद्यनाथ क्षेत्र के ऊर्जस्वित केंद्र वैद्यनाथ मंदिर का जाज्वल्यमान यह पंचशूल अपनी पंचकृत्यकारिता की अपरंपार शक्ति का आश्वासन भरा संकेत देता हुआ पंचकंचुकबद्ध जीवो की दिगंत से आती कतार को शिवत्व में परिणत होने का आश्वासन देता है. आणव आदि विभिन्न मलों में आपादमस्तक निमग्न परिणामी कातर जीवों को अघोर आनंद में पूर्णता देने वाले शिव पंचशूल रूप में अपनी प्रकाशमयी कृपा की स्वस्तिका बिखेर रहे हैं. ऊपर शिव की पंचकृत्यकारिता एवं जीव की पंचकंचुकबद्धता की स्थापना का आधार त्रिक-दर्शन है.
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त्रिक-दर्शन कश्मीरी शैवागम का विवेच्य तत्व है शिव, शक्ति और जीव का त्रिक समुदाय कश्मीरी शैवागम का विवेचन बिंदु है. शिव, शक्ति और जीव, ये तीन त्रिक हैं. ज्योतिर्लिंग रूप में प्रतिष्ठित शिव अपने नाम धेय में ‘वैद्यनाथ’ हैं. 51 शक्तिपीठों में एक ह्रदय पीठ की अधीश्वरी देवी जयदुर्गा हैं, जिनके शिव वैद्यनाथ हैं. एक ही परिसर में यहां शैवपीठ भी है और शक्तिपीठ भी. इन दोनों में से प्रत्येक महत्ता में स्वायत्त एवं और स्वतंत्र भी हैं और यामस रूप में एक-दूसरे के अविनाभाव में पूरक भी. कहा जा सकता है कि प्रत्येक शिव मंदिर के साथ भगवती पार्वती का मंदिर अनिवार्यतः स्थित है. जहां शिव मंदिर के अतिरिक्त पार्वती मंदिर के निर्माण की व्यवस्था न हो सकी है, वहां शिव के मंदिर के गर्भगृह में ही ईशाण कोण में भगवती पार्वती की प्रायः तपस्यारता अथवा करबद्ध उपासिका रूप में विग्रह का निर्माण किया गया है.
श्री वैद्यनाथ मंदिर में शिव मंदिर के सामने पूर्व दिशा में महादेवी पार्वती मंदिर का होना यह अन्य शैव स्थलों की भांति ही है. विलक्षणता है तो सिर्फ शिव मंदिर के ऊपर पंचशूल की अवस्थिति. शिव मंदिर के ऊपर स्थापित पंचशूल अवश्य ही इस स्थान के विशिष्ट दार्शनिक दृष्टिकोण और विशिष्ट पूजा पद्धति का सूचक है. ज्योतिर्लिंग और शक्तिपीठ के अतिरिक्त यह चिताभूमि भी है. यदि इसका महत्व सिर्फ इस बात को लेकर है कि विष्णु के चक्र के द्वारा शिव स्कंध से टिकी शव रूप में परिणता भगवती सती के सर्वांग की खंडित कर दिये जाने के बाद अवशिष्ट हृदयांश का अंतिम संस्कार यहां किया गया, तो भी धरती का यह भाग स्वयं में अन्यतम है, किंतु इससे आगे तात्त्विक दृष्टि से जो अधिक महत्व है, वह यह कि चिताभूमि से सायुज्य होकर वैद्यनाथ क्षेत्र शिव साधना का सर्वांग पूर्ण केंद्र सिद्ध होता है.
शिव रसेश्वर दर्शन के रस साधन का, चिताभूमि चिता साधना का एवं हृदय पीठ शक्ति पीठ सती साधना का अंतिम केंद्र है. तंत्र साधन की पूर्णता इन तीनों ही साधनों की पूर्णता और अंत में उसकी एकान्विति में सिद्ध है. रस-सिद्धि प्रथम सिद्धि है. रस पारद है. जीव सत्ता में रेतस् का पूर्ण परिपाक अर्थात अधोगामी उसके अपतत्त्व का दहन कर उसे उर्ध्वगामी अग्नि तत्त्व में परिणत करना तंत्र का रस साधन है. इसके ईश्वर शिव हैं. अतः उन्हें ही रसेश्वर कहा जाता है. श्रुति कहती है – रसो वै सः। रसं ह्वा ये यं लब्ध्वा आनन्दी भवति। इस रस का केंद्र ज्योतिर्लिंग बाबा बैद्यनाथ मंदिर है.