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Muharram 2024 : असत्य पर सत्य की विजय का प्रतीक पर्व है मुहर्रम

मुहर्रम इस्लामी कैलेंडर का पहला महीना है. इस्लाम धर्म में इस महीने को बड़ी अहमियत हासिल है, क्योंकि इसी माह में कई महत्वपूर्ण घटनाएं हुईं, जिनका इस्लामी इतिहास में प्रमुख स्थान है...

Muharram 2024 : इस्लाम धर्म के मुताबिक आसमान, जमीन और अन्य चीजों के साथ-साथ आदम अर्थात इस पृथ्वी के पहले मनुष्य को ईश्वर ने इसी महीने में बनाया. इसलिए जब से इस्लाम धर्म का उदय हुआ, उसी समय से इस महीने को प्रमुखता दिया जाने लगा. लेकिन हिजरी सन 61 (680 ई0) में जब कर्बला के मैदान में हजरत मोहम्मद पैगंबर-ए-इस्लाम के नवासे (नाती) हजरत हुसैन से यजीद ने खिलाफत के लिए जंग की, जिसमें हजरत हुसैन अपने 72 साथियों के साथ शहीद हुए, अर्थात 1372 वर्षों से याद-ए- हुसैन में मुहर्रम मनाया जा रहा है.

प्रो मुश्ताक अहमद (प्रधानाचार्य, सीएम कॉलेज, दरभंगा)
मुहर्रम असत्य पर सत्य की विजय का सबक सिखाता है, क्योंकि हजरते हुसैन ने यजीद के साथ जो जंग लड़ी, उसका उद्देश्य सत्ता या सिंहासन प्राप्त करना नहीं था, बल्कि इस्लाम धर्म के उसूल के मुताबिक खिलाफत हासिल करना था. अर्थात इस्लाम धर्म के कानून को जीवित रखना था. ज्ञातव्य हो कि इस्लाम धर्म के प्रवर्तक हजरत मुहम्मद के जीवन काल में ही हजरत हुसैन की शहादत की पेशनगोई (भविष्यवाणी) की थी. हजरत हुसैन अपने नाना पैगंबर हजरत मुहम्मद के धर्म के उसूलों को हर हाल में जिंदा रखना चाहते थे. इसलिए जब हजरत मुआविया ने अपने पुत्र को खलीफा घोषित किया तो इस्लाम के मानने वालों ने उस को कबूल करने से इंकार किया. ऐसा इसलिए किया गया कि हजरत अली जो इस्लाम धर्म के अंतिम खलीफा थे और जो शहीद हो गये थे, तो हजरत मुआविया को इस्लाम धर्म की कमान सौंप दी गयी थी और यह शर्त रखी थी कि हजरत मुआविया के बाद पुन: खिलाफत हजरत हुसैन को लौटा दी जायेगी. लेकिन हजरत मुआविया ने इस्लाम धर्म के उसूल के खिलाफ अपने पुत्र यजीद को खलीफा घोषित कर दिया और हजरत हुसैन को भी यजीद की खिलाफत कबूल करने की दावत दी. चूंकि ऐसा करना इस्लाम धर्म के विरूद्ध था. इसलिए हजरत हुसैन ने यजीद की खिलाफत मानने से इंकार कर दिया और सत्य के लिए यजीद से जंग करने को तैयार हो गये. यद्यपि हजरत हुसैन ने यजीद को यह समझाने की हर मुमकिन कोशिश की कि वादे के मुताबिक यजीद अपने को खलीफा घोषित न करे और तमाम मुसलमानों से सलाह-मशविरा के बाद कोई फैसला लिया जाये. लेकिन यजीद ने नहीं माना.

मजहबी जंग को टालना चाहते थे हजरत हुसैन

परिणामत: हजरत हुसैन यजीद को समझाने के लिए कूफा की तरफ रवाना हुए. ज्ञातव्य हो कि हजरत हुसैन जिस समय यजीद से मिलने जा रहे थे, उस समय उनके दिल में जंग करने का इरादा नहीं था, बल्कि इस मजहबी जंग को टालना था. लेकिन यजीद पहले से ही यह तय कर बैठा था कि यदि हजरत हुसैन उसकी खिलाफत को कबूल नहीं करते हैं, तो उन्हें शहीद कर डालेंगे. इतिहास गवाह है कि हजरत हुसैन के साथ उनके अपने खानदान के लोग और कुछ अन्य सहयोगी जिनकी तादाद केवल 72 थी और जिनमें औरतें व बच्चे भी शामिल थे, उनको घर से लेकर चले थे. जबकि दूसरी तरफ यजीद के लश्करों की तादाद हजारों में थी. इससे यह साबित हो जाता है कि हजरत हुसैन किसी तरह भी इस जंग को टालना चाहते थे. लेकिन दुनिया को यह सबक सिखाना था कि सत्य के लिए बड़ी से बड़ी ताकतों के सामने झुकना नहीं है और असत्य को हर हाल में अस्वीकार करना है. इसलिए यह जानते हुए कि यजीद की फौज जंग के लिए तैयार है, हजरत हुसैन और उनके साथी खुदा की रजामंदी और इस्लाम धर्म के परचम को बुलंद रखने के लिए कर्बला के मैदान में खुदा का नाम लेकर कूद पड़े.

हिजरी सन् 61 की सातवीं मुहर्रम के दिन यजीद ने हजरत हुसैन और उनके साथियों का पानी भी बंद कर दिया. इस हाल में भी हजरत हुसैन यजीद को समझाने की कोशिश करते रहे और इस्लाम धर्म का सबक देते रहे. लेकिन यजीद और उसकी सेना ने नौवीं मुहर्रम को हजरत हुसैन और उनके साथियों को घेर लिया और दसवीं मुहर्रम को हजरत हुसैन और उनके सहयोगियों को शहीद कर डाला.

हिंदू मजहब के लोगों ने शुरू की है झड़नी गायन की परंपरा

हजरत हुसैन की शहादत की याद में ही मुहर्रम मनाया जाता है. इस्लाम धर्म के मुताबिक तो केवल हजरत हुसैन की याद में मजलिसें मुनअकिद करना और इस्लाम धर्म के मानने वालों को हजरत हुसैन के जीवन एवं चरित्र से अवगत कराना है, लेकिन बदलते युगों के साथ मुहर्रम मनाने के तरीके भी बदलते चले गये हैं. अब मुहर्रम की सातवीं से दसवीं तक ताजिया, सिपहर, तलवारबाजी, लाठी, कसरत और झड़नी की नुमाइश की जाती है. इसमें बगैर किसी भेद-भाव के सभी धर्म के लोग भाग लेते हैं. खास कर झड़नी गायन की परंपरा तो हिंदू मजहब के लोगों ने ही शुरू की है. मुहर्रम का वर्तमान स्वरूप मुगल काल की देन है. यह मातम का धोतक नहीं है, बल्कि हजरत हुसैन की कुर्बानी और इस्लाम धर्म की सच्चाई को स्थापित करता है.

इस्लाम धर्म का शिया फिरका यौम-ए-आशूरा अर्थात मुहर्रम की दसवीं को जंजीरी मातम के माध्यम से हजरत हुसैन की शहादत को याद करता है और दुनिया को यह पैगाम देता है कि आज यजीद जो असत्य के बल पर जंग तो जीत गया, लेकिन आज उसका कोई नाम लेने वाला नहीं है. जबकि हजरत हुसैन जिन्होंने सत्य के लिए अपनी जान दी, उनका दुनिया के हर हिस्से में नामलेवा है और उनकी शहादत पर ईमान रखता है. किसी शायर ने ठीक की कहा है-

न यजीद का वह सितम रहा, न जयाद की वह जफा रही। 
जो रहा तो नाम हुसैन का, जिसे जिंदा रखती है कर्बला।।

कत्ले हुसैन अस्ल में मरगे यजीद है।
इस्लाम जिन्दा होता है हर कर्बला के बाद॥

यौमे आषूरा अर्थात नौवीं दसवीं के दिन मुसलमान रोजा रख कर हजरत हुसैन की शहादत की याद ताजा करते हैं और अपने जीवन में सत्य को उतारने का अहद करते हैं. मुहर्रम पूरी मानवता के लिए एक आदर्श कायम करता है, जहां भी अत्याचार, नाइंसाफी, हकतल्फी होती है, वहां हजरत हुसैन की शहादत असहाय और दुर्बलों को अमानवीय व्यवहारों से मुकाबला करने का साहस प्रदान करता है. जब तक दुनिया में अत्याचार, अधर्म और असत्य रहेगा, उस वक्त तक मुहर्रम की प्रासंगिकता बरकरार रहेगी.

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