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बसंत पंचमी के दिन जरूर करें मां सरस्वती स्तोत्र का पाठ, कुंडली में बनेगा उच्च शिक्षा और नौकरी के योग

Basant Panchami 2024: बसंत पंचमी की पूजा मां सरस्वती स्तोत्र के पाठ किए बिना अधूरी है. मां सरस्वती स्तोत्र का पाठ करने से शिक्षा ग्रहण करने में सफलता मिलती है और नौकरी के योग बनते हैं.

By Radheshyam Kushwaha | February 17, 2024 2:32 PM

Basant Panchami 2024: माघ मास में शुक्ल पक्ष की पंचमी को बसंत पंचमी का त्योहार मनाया जाता है, इस दिन सम्पूर्ण विधि विधान से मां सरस्वती जी की पूजा की जाती है. धार्मिक मान्यता है कि इसी दिन से बसंत ऋतु का आगमन होता है. बसंत पंचमी के दिन लेखक, कवि, संगीतकार और विद्यार्थी सभी सरस्वती की प्रथम वंदना करते हैं. बसंत पंचमी के दिन किसी भी शुभ कार्य के लिए बेहद उत्तम माना जाता है. हर साल बसंत पंचमी का पर्व माघ महीने के शुक्ल पक्ष की पंचमी तिथि को मनाया जाता है, इस बार बसंत पंचमी का त्योहार 14 फरवरी को है.

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शिक्षा ग्रहण करने में मिलेगी सफलता

बसंत पंचमी के दिन सुबह स्नान कर पीले रंग के वस्त्र धारण कर मां सरस्वती की विधिपूर्वक पूजा-अर्चना की जाती है. धार्मिक मान्यता है कि ऐसा करने से मां सरस्वती का आशीर्वाद प्राप्त होता है. बसंत पंचमी की पूजा मां सरस्वती स्तोत्र के पाठ किए बिना अधूरी है. मां सरस्वती स्तोत्र का पाठ करने से शिक्षा ग्रहण करने में सफलता मिलती है और नौकरी के योग बनते हैं. अगर आप भी सिद्धि सरस्वती से सिद्धि, बुद्धि, ज्ञान, ऐश्वर्य, तेज इत्यादि की कामना करते हैं तो आप सिद्धि सरस्वती की अराधना के लिए इस स्त्रोत का पाठ अवश्य करें.

॥ श्री सिद्ध सरस्वती स्तोत्र ॥

ध्यानम्

दोर्भिर्युक्ताश्चतुर्भिः स्फटिकमणिमयीमक्षमालां दधाना

हस्तेनैकेन पद्मं सितमपि च शुकं पुस्तकं चापरेण।

या सा कुन्देन्दुशङ्खस्फटिकमणिनिभा भासमाना समाना

सा मे वाग्देवतेयं निवसतु वदने सर्वदा सुप्रसन्ना। ॥1॥

आरूढा श्वेतहंसे भ्रमति च गगने दक्षिणे चाक्षसूत्रं

वामे हस्ते च दिव्याम्बरकनकमयं पुस्तकं ज्ञानगम्या।

सा वीणां वादयन्ती स्वकरकरजपैः शास्त्रविज्ञानशब्दैः

क्रीडन्ती दिव्यरूपा करकमलधरा भारती सुप्रसन्ना। ॥2॥

श्वेतपद्मासना देवी श्वेतगन्धानुलेपना।

अर्चिता मुनिभिः सर्वैर्ऋषिभिः स्तूयते सदा। ॥3॥

एवं ध्यात्वा सदा देवीं वाञ्छितं लभते नरः। ॥4॥

॥विनियोग॥

ॐ अस्य श्रीसिद्धसरस्वतीस्तोत्रमन्त्रस्य मार्कण्डेय ऋषिः, स्रग्धरा अनुष्टुप् छन्दः, मम वाग्विलाससिद्ध्यर्थं पाठे विनियोगः।

शुक्लां ब्रह्मविचारसारपरमामाद्यां जगद्व्यापिनीं

वीणापुस्तकधारिणीमभयदां जाड्यान्धकारापहाम्।

हस्ते स्फाटिकमालिकां विदधतीं पद्मासने संस्थितां

वन्दे तां परमेश्वरीं भगवतीं बुद्धिप्रदां शारदाम्। ॥1॥

या कुन्देन्दुतुषारहारधवला या शुभ्रवस्त्रावृता

या वीणावरदण्डमण्डितकरा या श्वेतपद्मासना।

या ब्रह्माच्युतशङ्करप्रभृतिभिर्देवैः सदा वन्दिता

सा मां पातु सरस्वती भगवती निःशेषजाड्यापहा। ॥2॥

ह्रीं ह्रीं हृद्यैकबीजे शशिरूचिकमले कल्पविस्पष्टशोभे

भव्ये भव्यानुकूले कुमतिवनदवे विश्ववन्द्याङ्घ्रिपद्मे।

पद्मे पद्मोपविष्टे प्रणतजनमनोमोदसम्पादयित्रि

प्रोत्फुल्लज्ञानकूटे हरिनिजदयिते देवि संसारसारे। ॥3॥

ऐं ऐं ऐं दृष्टमन्त्रे कमलभवमुखाम्भोजभूते स्वरूपे

रुपारुपप्रकाशे सकलगुणमये निर्गुणे निर्विकारे।

न स्थूले नैव सूक्ष्मेऽप्यविदितविभवे नापि विज्ञानतत्त्वे

विश्वे विश्वान्तरात्मे सुरवरनमिते निष्कले नित्यशुद्धे। ॥4॥

ह्रीं ह्रीं ह्रीं जाप्यतुष्टे हिमरुचिमुकुटे वल्लकीव्यग्रहस्ते

मातर्मातर्नमस्ते दह दह जडतां देहि बुद्धिं प्रशस्ताम्।

विद्ये वेदान्तवेद्ये परिणतपठिते मोक्षदे मुक्तिमार्गे

मार्गातीतस्वरूपे भव मम वरदा शारदे शुभ्रहारे। ॥5॥

धीं धीं धीं धारणाख्ये धृतिमतिनतिभिर्नामभिः कीर्तनीये

नित्येऽनित्ये निमित्ते मुनिगणनमिते नूतने वै पुराणे।

पुण्ये पुण्यप्रवाहे हरिहरनमिते नित्यशुद्धे सुवर्णे

मातर्मात्रार्धतत्त्वे मतिमतिमतिदे माधवप्रीतिमोदे। ॥6॥

ह्रूं ह्रूं ह्रूं स्वस्वरूपे दह दह दुरितं पुस्तकव्यग्रहस्ते

संतुष्टाकारचित्ते स्मितमुखि सुभगे जृम्भिणि स्तम्भविद्ये।

मोहे मुग्धप्रवाहे कुरु मम विमतिध्वान्तविध्वंसमीडे

गीर्गौर्वाग्भारति त्वं कविवररसनासिद्धिदे सिद्धिसाध्ये। ॥7॥

स्तौमि त्वां त्वां च वन्दे मम खलु रसनां नो कदाचित्त्यजेथा

मा मे बुद्धिर्विरूद्धा भवतु न च मनो देवि मे यातु पापम्।

मा मे दुःखं कदाचित् क्वचिदपि विषयेऽप्यस्तु मे नाकुलत्वं

शास्त्रे वादे कवित्वे प्रसरतु मम धीर्माऽस्तु कुण्ठा कदापि। ॥8॥

इत्येतैः श्लोकमुख्यैः प्रतिदिनमुषसि स्तौति यो भक्तिनम्रो

वाणी वाचस्पतेरप्यविदितविभवो वाक्पटुर्मुक्तकण्ठः।

स स्यादिष्टार्थलाभैः सुतमिव सततं पाति तं सा च देवी

सौभाग्यं तस्य लोके प्रभवति कविता विघ्नमस्तं प्रयाति। ॥9॥

निर्विघ्नं तस्य विद्या प्रभवति सततं चाश्रुतग्रन्थबोधः

कीर्तिस्त्रैलोक्यमध्ये निवसति वदने शारदा तस्य साक्षात्।

दीर्घायुर्लोकपूज्यः सकलगुणनिधिः संततं राजमान्यो

वाग्देव्याः सम्प्रसादात् त्रिजगति विजयी जायते सत्सभासु। ॥10॥

ब्रह्मचारी व्रती मौनी त्रयोदश्यां निरामिषः।

सारस्वतो जनः पाठात् सकृदिष्टार्थलाभवान्। ॥11॥

पक्षद्वये त्रयोदश्यामेकविंशतिसंख्यया।

अविच्छिन्नः पठेद्धीमान् ध्यात्वा देवीं सरस्वतीम्। ॥12॥

सर्वपापविनिर्मुक्तः सुभगो लोकविश्रुतः।

वाञ्छितं फलमाप्नोति लोकेऽस्मिन् नात्र संशयः। ॥13॥

ब्रह्मणेति स्वयं प्रोक्तं सरस्वत्याः स्तवं शुभम्।

प्रयत्नेन पठेन्नित्यं सोऽमृतत्वाय कल्पते। ॥14॥

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