आदिकवि वाल्मीकि के पूर्व की रामकथा विषयक गाथाओं तथा आख्यान काव्य की लोकप्रियता तथा व्यापकता निर्धारित करना असंभव है. बौद्ध त्रिपिटक में जो एकाध रामकथा संबंधी गाथाएं मिलती हैं और संभवत: महाभारत के द्रोण तथा शांतिपर्व में संक्षिप्त रामकथा पायी जाती है. इस सामग्री की अल्पता का ध्यान रख कर यह अनुमान दृढ़ हो जाता है कि जिस दिन वाल्मीकि ने इस प्राचीन गाथा साहित्य को ही एक कथासूत्र में ग्रंथित कर आदिरामायण की सृष्टि की थी, उसी दिन से रामकथा की दिग्विजय प्रारंभ हुई. प्रचलित वाल्मीकि रामायण के बालकांड तथा उत्तरकांड में इसका प्रमाण मिलता है कि काव्योपजीवी कुशीलव समस्त देश में जाकर चारों ओर आदिकाव्य का प्रचार करते थे.
महाभारत के रामोपख्यान स्पष्टतया आदिरामायण पर निर्भर है. हरिवंश (विष्णुपर्व, अध्याय-93) से पता चलता है कि रामायण के कथानक को लेकर प्राचीनकाल में नाटकों का अभिनय हुआ करता था. रामावतार की भावना भी धीरे-धीरे दृढ़ होती गयी और बौद्धों तथा जैनियों ने भी रामकथा को अपनाना आरंभ कर दिया. बौद्धों ने ईस्वी सन के कई शताब्दियों पहले राम को बोधिसत्व मान रामकथा को जातक साहित्य में स्थान दिया था.
बौद्धों की अपेक्षा जैनियों ने बाद में रामकथा को अपनाया, लेकिन जैन साहित्य में लोकप्रियता शताब्दियों तक बनी रही, जिस कारण जैन कथा-ग्रंथों में अत्यंत विस्तृत रामकथा साहित्य पाया जाता है. इसमें राम, लक्ष्मण तथा रावण केवल जैन धर्मावलंबी ही नहीं माने जाते हैं, बल्कि उन्हें जैनियों के त्रिषष्टि महापुरुषों में भी स्थान दिया गया है. इस प्रकार राम को उस समय के तीन प्रचलित धर्मों में एक निश्चित स्थान प्राप्त हुआ- ब्राह्मण धर्म में विष्णु के आठवें अवतार, बौद्ध धर्म में बोधिसत्व तथा जैन धर्म में आठवें बलदेव के रूप में.
संस्कृत धार्मिक साहित्य में रामकथा का स्थान अपेक्षाकृत कम व्यापक है. वैदिक साहित्य में नितांत अभाव है. हरिवंशपुराण तथा प्राचीनतम महापुराणों में जो संक्षिप्त रामकथा मिलती है, वह आदिरामायण पर समाश्रित प्रतीत होती है. बाद के महापुराणों तथा उपपुराणों में रामकथा विषयक सामग्री बढ़ने लगी, विशेषकर स्कंद पुराण, पद्मपुराण तथा महाभागवत पुराण में. संस्कृत ललित साहित्य के स्वर्ण काल में प्राय: समस्त कवियों ने रामकथा को लेकर अमर रचनाओं की सृष्टि की है. निम्नलिखित महाकाव्य तथा नाटक उल्लेखनीय हैं- रघुवंश, रावणवध, भट्टिकाव्य, महावीरचरित, उत्तररामचरित, जानकीहरण, कुंदमाला, अनर्घराघव, बालरामायण, महानाटक.
आधुनिक भारतीय भाषाओं के साहित्य में रामकथा की व्यापकता अद्वितीय है. इन सब भाषाओं का सर्वप्रथम महाकाव्य प्राय: कोई रामायण है तथा बाद की बहुत-सी रचनाओं की कथावस्तु भी रामकथा से संबंध रखती है. इसके अलावा इनका सबसे लोकप्रिय काव्य-ग्रंथ प्राय: कोई रामायण ही है. कुछ मुख्य रचनाएं हैं- कंबनकृत तमिल रामायण, तेलुगु द्विपद रामायण, मलयालम रामचरितम, कन्नड़ तोरबे रामायण, असमिया माधवकंदली रामायण, बंगाली कृतिवास रामायण, हिंदी रामचरितमानस, उड़िया बलरामदास रामायण और मराठी भावार्थ रामायण. भारतीय साहित्य में रामकथा की व्यापकता की अपेक्षा विदेश में लोकप्रियता अधिक आश्चर्यजनक है.
बौद्धों ने पहले पहल विदेश में रामकथा का प्रचार किया था. अनामकं जातकम् तथा दशरथकथानम् का क्रमश: तीसरी तथा पांचवीं सदी में चीनी भाषा में अनुवाद हुआ. इसके बाद रामकथा की एक अन्य धारा उत्तर की ओर फैलने लगी. इसका प्रमाण नौवीं सदी में तिब्बती तथा खोतानी रामायणों में मिलता है, जिनकी कथावस्तु ब्राह्मण रामकथा पर आधारित है. यद्यपि खोतानी रामायण पर बौद्ध प्रभाव भी स्पष्ट दिखता है. दोनों रचनाएं एक-दूसरे से बहुत कुछ मिलती हैं और इनका गुणभद्रकृत उत्तरपुराण तथा कश्मीरी रामायण से संबंध असंदिग्ध है. हिंदेशिया (इंडोनेशिया) तथा हिंदचीन (वियतनाम-कंबोडिया) में वाल्मीकि रामायण प्राचीन काल से ज्ञात है.
चंपा (वर्तमान वियतनाम का हिस्सा) राज्य के सातवीं सदी के एक शिलालेख में रामायण द्वारा श्लोकोत्पत्ति का उल्लेख मिलता है तथा जावा के नवीं सदी के एक शिव-मंदिर में रामायण की समस्त घटनाएं भित्तिचित्रों में अंकित की गयी हैं. उस प्राचीनकाल का कोई साहित्य सुरक्षित नहीं रह सका, किंतु बाद में जावा तथा मलय में एक विस्तृत रामकथा साहित्य की रचना हुई. इसमें रामकथा के दो भिन्न रूप मिलते हैं- एक, जावा के दसवीं सदी के रामायण ककविन का रूप जिसका प्रधान आधार भट्टिकाव्य है और नवीन सेसीराम का रूप, जो वाल्मीकीय कथा से बहुत भिन्न है. सेरीराम हिंदचीन, स्याम (प्राचीन थाईलैंड) तथा बर्मा में प्रचलित रामकथाओं का मुख्य आधार है.
(हिंदी परिषद, प्रयाग विश्वविद्यालय द्वारा 1950 में प्रकाशित ‘रामकथा: उत्पत्ति और विकास’ से संशोधित एवं संपादित अंश)
posted by ashish jha