Shankaracharya Jayanti 2020 : कल 28 अप्रैल को शंकराचार्य जयंती है.आदि शंकराचार्य का जन्म वैशाख शुक्ल पंचमी को दक्षिण भारत के राज्य केरल के कालड़ी नामक गांव में शिव भक्त रहे एक ब्राह्मण परिवार में हुआ था. शंकराचार्य जी के पिता का नाम शिवगुरु नामपुद्रि और माता का नाम विशिष्टा देवी था. विशिष्टा देवी को संतान की प्राप्ति नहीं हो रही थी. उन्होंने भगवान शिव की कठोर तपस्या की जिसके बाद एक पुत्र की प्राप्ति उन्हे हुई थी और बालक का नाम शंकराचार्य रखा गया. शास्त्रों के अनुसार नामपुद्रि और विशिष्टा ने इसके लिए भगवान शिव की बहुत की कठोर आराधना की थी और स्वंय भगवान शिव ने इन दोनों के यहां पुत्र बनकर जन्म लिया था. वैशाख मास के शुक्ल पक्ष की पंचमी को जन्मे इस बालक का नाम शंकर रखा गया. लेकिन दुर्भाग्यवश जन्म के साथ ही शंकर के पिता का निधन हो गया और बालक के पालन-पोषण का सारा भार माता विशिष्टा के ही द्वारा किया गया.
विल्क्षण प्रतिभा के थे धनी:
मां ने जब शंकर को गुरुकुल भेजा तो शंकर की प्रतिभा देखकर गुरुकुल के गुरुजन भी हैरान थे.क्योंकि बालक शंकर को पहले से ही धर्मग्रंथ, वेद,पुराण,उपनिषद आदि का पूरा ज्ञान था.शंकराचार्य ने सनातन धर्म को मजबूत करने में बड़ी भूमिका निभाई थी.और इसके लिए बचपन मे ही उन्होंने सन्यास ले लिया था.हालांकि उनकी माता संन्यायी बनाने की पक्षधर नही थीं.लेकिन एक घटना ने उनको मजबूर किया और शंकर को संन्यास लेने की सहमति मां को देनी पड़ी.
मां को मजबूरी में देनी पड़ी थी संन्यास की सहमती :
दरअसल एक कथा के अनुसार,जब शंकर की मां इन्हें संन्यासी बनने की आज्ञा नहीं दे रही थीं तो एक दिन इन्होंने स्नान करते समय नदी किनारे एक माया रच डाली और एक मगरमच्छ बालक शंकर का पैर पकड़ लेता है.बालक शंकर चिल्लाता है और मां से निवेदन करता है कि मुझे संन्यास लेने की आज्ञा दो मां नहीं तो यह मगरमच्छ मुझे खा जाएगा.इससे भयभीत होकर मां ने उन्हें संन्यास लेने की आज्ञा दे दी.और इसके फौरन बाद मगरमच्छ ने शंकराचार्य जी का पैर छोड़ दिया था.उस समय बौद्ध धर्म का प्रसार तेजी से हो रहा था और वैदिक धर्मावलम्बी कमजोर होते जा रहे थे.जिसे मजबूत करने में आदि शंकराचार्य की बहुत बड़ी भूमिका रही है.
मां को दिया वचन निभाया,संन्यासी रहकर भी किया अंतिम संस्कार:
कहा जाता है कि शंकराचार्य ने अपनी मां को यह वचन दिया था कि उसके जीवन के अंतिम क्षणों में वह उसके पास रहेंगे.और जब उन्हें अपनी मां के अंतिम क्षणों एक एहसास हुआ था तो वो एक संन्यासी के रूप में ही अपनी मां के पास चले गए थे.शंकराचार्य अपने गांव पहुंचे और उन्हें देखकर ही उनकी मां ने अपने प्राण त्यागे.जब अंतिम संस्कार का समय आया तो पूरे गांव ने यह कहकर उनका विरोध किया कि वो अंतिम संस्कार नहीं कर सकते क्योंकि वो संन्यासी हैं.जिस पर शंकराचार्य ने कहा कि वह अपनी मां को वचन देते समय संन्यासी नहीं थे और इस तरह तमाम विरोधों के बाद भी उन्होंने अपनी मां का अंतिम संस्कार सम्पन्न किया.जिसका साथ उनके गांव वालों ने नहीं दिया था. इसपर शंकराचार्य ने अपने घर के सामने ही मां की चिता सजाई थी और अंतिम संस्कार सम्पन्न किया था .कहा जाता है कि उसके बाद से ही केरल के कालड़ी में घर के सामने चिता जलाने की परंपरा शुरू हो गई.