किरीबुरु (शैलेश सिंह) : झारखंड के पश्चिमी सिंहभूम के सारंडा में एक ऐसा भी गांव है, जो सरकार के लिए गांव नहीं है. जी हां, रांगरिंग गांव को अब तक सरकार की तरफ से गांव के रूप में मान्यता नहीं मिल पायी है. गांव को मान्यता दिलाने एवं यहां बुनियादी सुविधाओं के लिए ग्रामीण निरंतर आवाज उठा रहे हैं. यह गांव नोवामुंडी स्थित सेल की मेघाहातुबुरु खदान के रांगरिंग डैम के ठीक बगल में बसा है, जो सारंडा जंगल में पड़ता है.
सारंडा के जंगल में बसे इस गांव का इतिहास भी काफी रोचक है. श्रीकांत पान बताते हैं कि वर्ष 1985-86 के दौरान मेघाहातुबुरु लौह अयस्क खादान की लाल पानी व मिट्टी-मुरुम सारंडा जंगल में बहकर नहीं जाये, इसके लिए रांगरिंग में सेल प्रबंधन ने बिसरा की अग्रवाल नामक कंपनी को डैम बनाने का काम सौंपा.
इस डैम के निर्माण के लिए झारखंड-ओड़िशा के विभिन्न क्षेत्रों से मजदूरों को लाकर वहां काम पर लगाया गया. इसमें श्रीकांत पान भी ट्रक के खलासी के रूप में काम करते थे. बाहर से लाये गये सारे मजदूरों को रहने के लिए डैम के बगल में ही टीना का शेड बनाया गया. यहीं अग्रवाल कंपनी का एक अस्थायी कार्यालय भी बना.
Also Read: शहर में आये दो हाथी, लोगों ने फोटो लेना शुरू किया, तो पहुंच गये लोहरदगा सदर थाना और वहां से कूच कर गये जंगल की ओरशुरू में मिट्टी को काटकर सैकड़ों मजदूर डैम बनाने में जुटे रहे. दो लेयर तक मिट्टी भराई का काम मजदूरों ने किया, जबकि तीसरे लेयर की मिट्टी भरने का काम जेसीबी मशीन से हुआ. इसके बाद डैम के ऊपर पत्थर सोलिंग का कार्य मजदूरों से कराया गया. यह कार्य चार-पांच वर्षों तक चला.
श्री पान कहते हैं, ‘इस दौरान हमने भी रांगरिंग में एक टीना शेड की झोपड़ी बनायी थी. डैम का निर्माण कार्य पूरा होने के बाद काफी बाहरी मजदूर वापस चले गये. दर्जनों लोग इस आशा और विश्वास के साथ अग्रवाल कंपनी द्वारा बनाये गये टीना शेड में ही रहने लगे कि शायद आगे भी मेघाहातुबुरु खदान प्रबंधन उन्हें रोजगार देगी. लेकिन ऐसा हुआ नहीं.
जब खदान में फिर से किसी को रोजगार नहीं मिला, तो लोगों ने वहां से जाने की बजाय सारंडा जंगल में उपलब्ध प्राकृतिक संसाधनों से ही अपना जीविका चलाने की सोची. सभी अपनी झोपड़ी में रह गये. और अपनी सुविधा के हिसाब से सारंडा जंगल से जीविकोपार्जन करने लगे. इस तरह यहां एक छोटा-सा गांव बस गया. गांव का नाम है रांगरिंग.
इस वक्त रांगरिंग गांव में 42 परिवार रहते हैं. इनके पास आधार कार्ड, मतदाता पहचान पत्र, राशन कार्ड (सभी के पास नहीं) तो है, लेकिन गांव को अब तक सरकारी मान्यता नहीं मिली है. यही वजह है कि अब तक सरकार ने यहां कोई विकास कार्य नहीं किया है. बिजली, पानी, चिकित्सा सुविधा की बात कौन कहे, गांव में जाने के लिए सड़क तक नहीं है.
Also Read: Coronavirus In Jharkhand LIVE Updates: डीटीओ कार्यालय में भी पहुंचा कोरोना, दो दिन के लिए कार्यालय बंद, गिरिडीह के पूर्व सांसद रवींद्र पांडेय कोरोना पॉजिटिवग्रामीण लगभग 10 किलोमीटर पैदल चलकर मेघाहातुबुरु स्थित सरकारी राशन दुकान से राशन लेने जाते हैं. इस सुदूरवर्ती गांव में गैर सरकारी संगठन एस्पायर ने वर्ष 2019 से एक लकड़ी व पुआल की छोटी-सी झोपड़ी में एनआरबीसी स्कूल का निःशुल्क संचालन शुरू किया. इसमें किरीबुरु के एक प्राइवेट शिक्षक फ्रांसिस मुंडा 20 किलोमीटर पैदल चलकर पढ़ाने जाते हैं.
एस्पायर की इस पहल से गांव की पहली पीढ़ी ने शिक्षा ग्रहण करना शुरू किया है. इससे पहले गांव के लोगों को कभी भी स्कूल में पढ़ने का मौका नहीं मिला. पिछले दिनों नोवामुंडी के अंचल अधिकारी (सीओ) एवं प्रखंड विकास पदाधिकारी (बीडीओ) ने इस स्कूल का निरीक्षण किया. अब जिला शिक्षा पदाधिकारी भी यहां आने वाली हैं.
वन विभाग इसे सारंडा का इन्क्रोचमेंट गांव मानता है. यही वजह है कि ऐसे गांवों में विकास योजनाओं को पहुंचाना आसान नहीं है. चिकित्सा सुविधा के अभाव में अनेक जिंदगी गांव में ही दफन हो गयी. सीओ और बीडीओ के दौरे से गांव के लोगों में उम्मीद जगी है कि इनके लिए भी रोजगार, शिक्षा, पेयजल, बिजली, स्वास्थ्य आदि की व्यवस्था सरकार करेगी.
Posted By : Mithilesh Jha