#500thTest : संघर्ष के बल पर भारतीय टीम ने बनायी पहचान
-अनुज कुमार सिन्हा- एक जमाना था जब भारतीय क्रिकेट टीम को टेस्ट में अपनी पहली जीत हासिल करने के लिए 20 साल का इंतजार करना पड़ा था. अब समय बदल गया है और वही भारतीय टीम आज दुनिया की श्रेष्ठ टीम मानी जाती है. 84 साल की इस यात्रा में भारत 499 टेस्ट खेल चुका […]
-अनुज कुमार सिन्हा-
एक जमाना था जब भारतीय क्रिकेट टीम को टेस्ट में अपनी पहली जीत हासिल करने के लिए 20 साल का इंतजार करना पड़ा था. अब समय बदल गया है और वही भारतीय टीम आज दुनिया की श्रेष्ठ टीम मानी जाती है. 84 साल की इस यात्रा में भारत 499 टेस्ट खेल चुका है और ऐतिहासिक 500वां टेस्ट खेलने जा रहा है. दुनिया में यह गौरव (500 टेस्ट खेलने का) सिर्फ इंगलैंड (976 टेस्ट), ऑस्ट्रेलिया (791) और वेस्ट इंडीज (517 टेस्ट) को ही मिल पाया है. 25 जून, 1932 को भारत ने इंगलैंड के खिलाफ लार्ड्स में अपना पहला आधिकारिक टेस्ट मैच खेला था. अगर इंगलैंड के कप्तान जार्डिन ने 79 और 85 रन की पारी नहीं खेली होती, तो शायद भारत अपना पहला ही टेस्ट जीत लिया होता. लेकिन, ऐसा नहीं हुआ और भारत यह टेस्ट हार गया. टेस्ट हारने के बावजूद भारतीय टीम अपनी छाप छोड़ गयी. उन दिनों इंगलैंड की टीम की तूती बोलती थी. सीके नायडू की अगुआई में भारतीय टीम उतरी थी. इसमें नावले, जाउमल, वजीर अली, कोलाह, नजीर अली, लाल सिंह, जहांगीर खान, अमर सिंह और निसार जैसे खिलाड़ी थे. मो निसार ने होम्स और तब के महान बल्लेबाज स्टक्लिफ को मामूली स्कोर पर आउट कर दिया था.
एक समय इंगलैंड के तीन विकेट सिर्फ 19 रन पर गिर गये थे, लेकिन वह 259 रन बनाने में सफल रहा था. निसार तेज गेंदबाज थे और अपने पहले ही टेस्ट की पहली पारी में इस तेज गेंदबाज ने पांच विकेट लिये थे. यह बड़ी उपलब्धि थी. अमर सिंह उनके साथी तेज गेंदबाज थे. भारत अभी सात टेस्ट ही खेल पाया था कि दूसरा विश्व युद्ध हो गया. इस कारण लगभग दस साल तक (1936-1946) टेस्ट नहीं खेला जा सका. आरंभ के दस टेस्ट तो भारत ने सिर्फ इंगलैंड के साथ खेले. दस साल तक टेस्ट नहीं होने से अमर सिंह और निसार वह जलवा नहीं दिखा सके, जिसकी उनसे उम्मीद की जा रही थी.
विश्व युद्ध के बाद भारत टेस्ट खेलते जा रहा था, लेकिन जीत नहीं मिल रही थी. 1951-52 में भारत ने जीत का पहला स्वाद तब चखा, जब मद्रास में उसने इंगलैंड को हराया. वह भी पारी से. उसी टीम को हराया, जिसके खिलाफ पहला टेस्ट खेला था. 20 साल के प्रयास और इंतजार के बाद पहली जीत मिली थी. भारतीय क्रिकेट के लिए वह ऐतिहासिक क्षण था. इस जीत को अभी भी याद किया जाता है. जीत के हीरो थे बीनू मांकड़, जिसने पहली पारी में आठ और दूसरी पारी में चार यानी कुल 12 विकेट लिये थे. बल्लेबाजी में भारत की ओर से पंकज राय और पाली उमरीगर ने शतक जमाया था. एक पारी और आठ रन से भारत की जीत हुई थी, जीत का खाता खुला था. इसके कुछ समय बाद ही भारत ने पाकिस्तान के खिलाफ दिल्ली में पहली जीत दर्ज की, एक पारी और 70 रन से. उस मैच के हीरो भी मांकड़ ही थे, जिन्होंने पहली पारी में आठ और दूसरी पारी में पांच विकेट लिये थे.
तीसरी जीत पाकिस्तान के खिलाफ उसी साल मुंबई में मिली, जब भारत ने पाकिस्तान को 10 विकेट से हराया. यहां भी मांकड़ ने पूरे मैच में आठ विकेट लिये. 1952 का साल भारत के लिए खास रहा,जीत का वर्ष. एक साल में तीन जीत. तीनों के हीरो बीनू मांकड़. एक महान ऑल राउंडर. भारतीय क्रिकेट में एक से बढ़ कर एक कप्तान हुए, एक से बढ़ कर एक बल्लेबाज-गेंदबाज हुए, जिन्हें आज भी याद किया जाता है. चाहे वह सीके नायडू (पहले टेस्ट कप्तान) हों, लाला अमरनाथ हों, पटौदी हों, अजीत वाडेकर हों, कपिलदेव हों, अजहर हों, सौरभ गांगुली हों या फिर धौनी हों, इनके कार्यकाल में भारत ने कोई न कोई इतिहास रचा है. भारत में विजय हजारे, पंकज राय, सीके नायडू, विजय मर्चेंट, दिलीप सरदेसाई, पाली उमरीगर, सुनील गावस्कर (10 हजार रन बनानेवाले पहले खिलाड़ी), गुंडप्पा विश्वनाथ, दिलीप वेंगसरकर (जिन्होंने लार्ड्स में लगातार तीन टेस्ट शतक जमाया), मोहिंदर अमरनाथ, सचिन तेंदुलकर (सौ शतकों का रिकॉर्ड), राहुल द्रविड, सौरभ गांगुली, वीरेंद्र सेहवाग (भारत की ओर से दो तिहरे शतक जमानेवाले खिलाड़ी), वीवीएस लक्षमण (विकेट पर जम कर मैच जितानेवाली पारी खेलनेवाले) और अब विराट कोहली जैसे विश्व स्तरीय बल्लेबाज हुए. इन लोगों ने लंबे समय तक भारतीय टीम की सेवा की. इनमें से एक सीके नायडू (भारत के पहले टेस्ट कप्तान) कितने जीवट थे, इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि 1956 में जब उन्होंने प्रथम श्रेणी का अंतिम मैच खेला तो, उनकी उम्र थी-61 साल. उत्तरप्रदेश और राजस्थान के बीच खेले गये इस मैच में वीनू मांकड़, रामचंद्रन और सलीम दुर्रानी के खिलाफ उस उम्र में 84 रन की पारी खेली थी. दो छक्के लगाये थे. नायडू और सलीम दुर्रानी को दर्शकों की मांग पर छक्के लगाने के लिए भी जाना जाता है.
1952 के बाद 1971 का वर्ष भारत के लिए शानदार रहा. पहली बार वेस्ट इंडीज की मजबूत टीम को उसी की धरती पर और उसके बाद इंगलैंड को उसके घर में भारत ने हराया. तब तक मांकड़ और सुभाष गुप्ते जैसे स्पिनरों का दौर खत्म हो चुका था और इसका स्थान बिशन सिंह बेदी, इरापल्ली प्रसन्ना, वेंकट राघवन और भागवत चंद्रशेखर की चौकड़ी ले चुका था. तेज गेंदबाज तो होते थे नहीं. आबिद अली शुरुआत कर कुछ ओवरों के बाद हट जाते थे. इस दौर में कई ऐसे अवसर आये, जब किसी तरह एकनाथ सोल्कर और गावस्कर से दूसरा-तीसरा ओवर फेंकवा कर चौथे-पांचवें ओवरों से स्पिनरों को गेंदबाजी दे दी जाती थी. बाकी का काम बेदी, चंद्रशेखर, राघवन या प्रसन्ना करते थे. वह स्पिन युग था, जो 1978-79 तक चला. कपिलदेव के आगमन के बाद स्थिति थोड़ी बदलनी शुरू हो गयी. पोर्ट ऑफ स्पेन में 1971 में भारत गैरी सोबर्स की टीम से खेल रहा था.
इसी मैच में गावस्कर ने अपने टेस्ट जीवन की शुरुआत की थी. दोनों पारियों में गावस्कर ने अर्द्धशतक जमाया था, लेकिन फर्क पड़ा था दिलीप सरदेसाई के शतक से. भारत ने सात विकेट से टेस्ट जीता था. वेस्टइंडीज की धरती पर पहली जीत. 20 में 15 विकेट बेदी, प्रसन्ना और वेंकट राघवन (सभी स्पिनर) के नाम थे. कप्तान थे अजीत वाडेकर. पांच महीने बाद अगस्त में यही टीम इंगलैंड के दौरे पर थी. इसी टीम ने इंगलैंड को इंगलैंड में पहली बार हराया. ओवल का टेस्ट था. इस टेस्ट को चंद्रशेखर के नाम से जाना जाता है. इंगलैंड की मजबूत टीम को दूसरी पारी में सिर्फ 101 रन पर समेट दिया था. लेग स्पिन और गुगली से चंद्रशेखर ने दूसरी पारी में अकेले छह विकेट लिये थे. पोर्ट ऑफ स्पेन और ओवल की जीत के बाद भारतीय टीम बदल चुकी थी. 1976 में भारत ने वेस्टइंडीज को चौथी पारी में 400 से ज्यादा रन बना कर हराया था, तो बाद के टेस्ट में वेस्टइंडीज के चार तेज गेंदबाजों ने भारतीय खिलाड़ियों को एक के बाद एक घायल कर दिया था. गायकवाड़, विश्वनाथ और ब्रजेश पटेल को अस्पताल जाना पड़ा था. उस हालात में भी भारतीय खिलाड़ियों ने धैर्य दिखाया था.
इसके बाद का दौर सुस्त दौर रहा. तब तक वनडे मैच आरंभ हो गया था. भारत की कोई पहचान नहीं थी. पहले और दूसरे वर्ल्ड कप में भारत सिर्फ एक मैच जीता पाया था. थोड़ा उत्साह तब बदला था, जब 1978 में बेदी की अगुआई में भारत की टीम ऑस्ट्रेलिया गयी थी. लिली और थामसन का युग था. पांच टेस्ट मैचों में से पहले दो टेस्ट भारत ने हारे थे, (ब्रिसबेन और पर्थ). मेलबॉर्न और सिडनी टेस्ट जीत कर भारत 2-2 की बराबरी कर चुका था, लेकिन एडिलेड का अंतिम टेस्ट भारत शानदार खेलने के बाद हार गया था. सीरिज भारत भले ही हार गया था, लेकिन ऑस्ट्रेलिया को उसी की धरती पर हराने से मनोबल काफी बढ़ गया था. यह अलग बात है कि ऑस्ट्रेलिया से लौटने के बाद जब भारतीय टीम लंबे अंतराल के बाद बेदी की अगुआई में पाकिस्तान गयी (1965 और 1971 की लड़ाई के कारण लंबे समय तक भारत-पाक क्रिकेट संबंध खत्म रहा था) तो भारत लाहौर और कराची का टेस्ट हार कर सीरिज 2-0 से हार गया था.
1979 में पाकिस्तान दौरे (फैसला बाद में पहला टेस्ट था) में दुनिया के महान ऑलराउंडर कपिलदेव का पदार्पण हो चुका था. चार साल बाद जब कपिल की अगुआई में भारत ने 1983 का वर्ल्ड कप जीता, तो इससे भारत एक नयी ताकत के रूप में उभरा. कई वन डे प्रतियोगिताएं भारत ने जीती. इन जीतों का असर टेस्ट टीम पर भी पड़ता रहा. 1989 में सचिन भी आ चुके थे. कपिलदेव के रूप में भारत को न सिर्फ तेज गेंदबाज मिला था, बल्कि एक सशक्त ऑल राउंडर भी मिला था. कपिल का साथ देने के लिए श्रीनाथ, वेंकटेश प्रसाद जैसे तेज गेंदबाज भी थे. यह दौर था, जब भारत की निर्भरता स्पिन पर कम होने लगी थी. सौरभ गांगुली के कप्तान बनने के बाद भारतीय क्रिकेट अपने स्वर्णिम समय में आ गयी थी. चाहे वह टेस्ट हो या वन डे, जीतने की आदत लग चुकी थी. गांगुली की आक्रामकता ने ऑस्ट्रेलिया जैसी टीम को भी परेशान किया. ऑस्ट्रेलिया को उसी की भाषा में जवाब दिया) इस दौरान भारत के पास शानदार बल्लेबाज थे. गांगुली, सचिन, द्रविड, सेहवाग और लक्षमण किसी विपक्षी को ध्वस्त करने की क्षमता रखते थे. सभी की शैली अलग-अलग थी. इसी सेहवाग के बल (मुल्तान में तिहरा शतक) पर पाकिस्तान को उसी की धरती पर भारत ने हराया. 2001 में कोलकाता में फॉलो ऑन खेलने के बावजूद भारत ने लक्षमण (281) और द्रविड़ (180) की बदौलत ऑस्ट्रेलिया को 171 रन से हराया था. उन दिनों ऑस्ट्रेलिया की तूती बोलती थी. भारत ने ही उसका विजय रथ रोका था.
भारत ने दुनिया को सचिन के तौर पर तोहफा दिया. अनेक रिकॉर्ड सचिन के नाम पर हैं. टेस्ट और वनडे में सौ शतक, सपना लगता है, लेकिन यह करिश्मा सचिन ने कर दिखाया है. अनिल कुंबले और हरभजन सिंह ने अपनी छाप छोड़ी. पाकिस्तान के खिलाफ एक पारी में 10 विकेट लेने का रिकॉर्ड कुंबले के नाम. यह करिश्मा सिर्फ जिम लेकर (इंगलैंड) ने ही दिखाया था. एक और महान खिलाड़ी आये महेंद्र सिंह धौनी. कभी नरेंद्र तम्हाणे, फारूख इंजीनियर, सैयद किरमानी की विकेटकीपिंग का कोई जवाब नहीं था, धौनी के आने के बाद वे बड़े नाम पीछे हो गये. छोटे-छोटे शहरों से प्रतिभावान खिलाड़ी निकले. धौनी इन्हीं में से एक हैं, जिन्होंने वनडे और टी-20 में भारत को चैंपियन बनाया.
आज भारत वर्ल्ड क्रिकेट में सबसे बड़ा नाम है. भारत का विरोध या समर्थन आइसीसी के लिए मायने रखता है. 84 साल में 499 टेस्ट खेलते हुए (500वां टेस्ट 22 सितंबर से खेला जायेगा)भारत ने बहुत उतार-चढ़ाव देखे हैं. आज खिलाड़ियों के पास अथाह पैसा है, लेकिन कौन भूल सकता है 1932 के उस भारतीय खिलाड़ी नावले को, जिन्होंने भारत के पहले टेस्ट में विकेटकीपिंग की थी. जीवन के अंतिम क्षणों में गरीबी के कारण उनकी मौत हुई थी. इस महान खिलाड़ी को मुंबई-पुणे सड़क पर भीख भी मांगना पड़ा था. कई और महान खिलाड़ियों को इलाज के अभाव में दम तोड़ना पड़ा था. लेकिन यह सब पुरानी बात हो गयी. अब क्रिकेट का दबदबा है, पैसा है, ग्लैमर है. भारत 500वां टेस्ट खेलने जा रहा है. अब तक खेले गये टेस्ट मैचों से भारत ने यह साबित कर दिया है कि वर्ल्ड क्रिकेट में भारत का कितना योगदान है.