बिहार की राजनीति में नीतीश कुमार का कद तब ज्यादा बढ़ा जब उन्होंने प्रदेश से जंगल राज को समाप्त करने का संकल्प लिया था. कहने का आशय यह है कि जब नीतीश कुमार लालू का साथ छोड़कर प्रदेश की राजनीति में उतरे, तो लोगों के बीच उनकी छवि और उभरी और वे बिहार के मुख्यमंत्री बने. उन्होंने बदहाल बिहार को ट्रैक पर लाने की भरपूर कोशिश की और एक राष्ट्रीय नेता के रूप में स्थापित हुए, जिनमें लोगों ने देश के भावी प्रधानमंत्री की छवि भी देखी.फिर ऐसा क्या हुआ कि नीतीश को दुबारा लालू यादव के शरण में जाना पड़ा.
सिद्धांतों से समझौता क्यों कर रहे हैं नीतीश?
नीतीश कुमार एक आदर्शवादी नेता हैं, जिन्होंने अपने सिद्धांतों से कभी समझौता नहीं किया. सिद्धांतों की खातिर बिहार में भाजपा के साथउन्होंने 17 साल पुराने गंठबंधन को भी तोड़ दिया. लेकिन वर्तमान में राजनीति की जो तसवीर उभर रही है, वह नीतीश के सिद्धांतों पर कई सवाल खड़े कर रही है. 11 अगस्त को हाजीपुर में नीतीश कुमार ने एक चुनावी सभा को संबोधित किया, इस चुनावी सभा में उनके साथ मंच पर लालू यादव नजर आये, जो अब उनके सहयोगी बन चुके हैं.
लालू यादव का कहना है कि नीतीश और उनका डीएनए एक ही है, इसलिए अगर वे 20 साल बाद भी साथ आये हैं, तो कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए. नीतीश ने भी यही तर्क दिया कि वे लालू जी के साथ इसलिए आये हैं, ताकि भाजपा को टक्कर दे सकें.लेकिन यहां सवाल यह उठता है कि क्या मात्र भाजपा को सत्ता से दूर रखने के लिए नीतीश कुमार लालू यादव के साथ समझौता कर लेंगे? 1994 में मतभेदों के बाद नीतीश कुमार ने लालू का साथ छोड़ दिया और जॉर्ज फर्नांडिस के साथ मिलकर समता पार्टी का गठन किया. फिर वर्ष 2003 में शरद यादव के साथ मिलकर इन्होंने जनता दल यूनाइटेड का गठन किया.
भाजपा के साथ गंठबंधन तोड़ने पर नीतीश की छवि को लगा धक्का
16वीं लोकसभा के चुनाव के पूर्व वर्ष 2005 से बिहार में जारी भाजपा और जनता दल (यू) का गंठबंधन टूट गया. इसका कारण यह था कि भाजपा ने प्रधानमंत्री पद के लिए नरेंद्र मोदी का चयन किया था. नीतीश कुमार भाजपा के तो समर्थक थे, लेकिन वे नरेंद्र मोदी को पसंद नहीं करते थे. संभवत: यही कारण था कि बिहार में भाजपा और जदयू की 17 साल पुरानी दोस्ती टूट गयी. इससे नीतीश कुमार की छवि को काफी धक्का लगा. बावजूद इसके यह महसूस किया गया कि नीतीश कुमार एक आदर्शवादी नेता हैं और नरेंद्र मोदी पर सांप्रदायिकता की मुहर लगी हुई है, इसलिए उन्होंने भाजपा का साथ छोड़ दिया.
लालू का दामन थाम खुद को नुकसान पहुंचा रहे हैं नीतीश
नीतीश कुमार एक ऐसे राजनेता हैं, जिन्होंने सिद्धांतों से कभी समझौता नहीं किया, ऐसे में क्या मजबूरी हो गयी कि वे उस लालू यादव के साथ चले गये, जिनपर जाति-धर्म की राजनीति करने का तो आरोप है ही, वे पशुपालन घोटाला में दोषी भी साबित हो चुके हैं. लालू यादव एक ऐसे राजनेता हैं, जिन्होंने अपने 15 साल के शासनकाल में बिहार की छवि को धूमिल कर दिया और बिहार विकास के पथ पर पिछड़ता ही चला गया. नीतीश जैसे राजनेता के लिए राजनीति का उद्देश्य मात्र सत्ता की प्राप्ति नहीं है, फिर यदि वे चुनाव हार ही जाते, तो क्या नुकसान था. कम से कम उनकी छवि तो धूमिल नहीं होती.
भाजपा को मिल गया है नीतीश की खिंचाई का अवसर
लालू का दामन थाम कर नीतीश कुमार ने अपने विरोधियों को अपनी निंदा करने का अवसर दे दिया है. ऐसे में भाजपा उन्हें मौकापरस्त नेता करार देने में कदापि गुरेज नहीं करेगी.