इस्तीफा दे नीतीश ने गढ़ा नया मुहावरा

स्पेशल सेल पटना : 2010 का विधानसभा चुनाव याद करिए. उस चुनाव में जदयू और भाजपा को ऐतिहासिक जीत मिली थी. नीतीश कुमार एनडीए के नेता थे. चुनाव में जदयू को 115 और सहयोगी भाजपा को 91 सीटें मिली थीं. 243 सदस्यीय विधानसभा की 206 सीटों पर जीतने वाले गंठबंधन के प्रमुख नीतीश कुमार के […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | December 27, 2014 12:01 PM

स्पेशल सेल

पटना : 2010 का विधानसभा चुनाव याद करिए. उस चुनाव में जदयू और भाजपा को ऐतिहासिक जीत मिली थी. नीतीश कुमार एनडीए के नेता थे. चुनाव में जदयू को 115 और सहयोगी भाजपा को 91 सीटें मिली थीं. 243 सदस्यीय विधानसभा की 206 सीटों पर जीतने वाले गंठबंधन के प्रमुख नीतीश कुमार के नेतृत्व पर राज्य के लोगों के भरोसे की मुहर थी. अशासन की जगह सुशासन की नयी हवा के झोंके से सभी अचंभित थे. विधानसभा चुनाव के करीब दो साल बाद हुए लोकसभा के चुनाव में नीतीश कुमार की पार्टी जदयू को केवल दो सीटें मिलीं. इस साल 16 मई को चुनाव नतीजे आये और उसके अगले दिन उन्होंने मुख्यमंत्री के पद से इस्तीफा दे दिया.

उनका कहना था कि काम की मजदूरी नहीं मिली तो उन्होंने यह कदम उठाया. नीतीश चाहते तो वे चुनाव नतीजे आने के बाद भी मुख्यमंत्री की कुरसी पर रह सकते थे. उनसे न तो पार्टी और न ही चुनाव में उम्दा प्रदर्शन करने वाली भाजपा ने कुरसी छोड़ने की मांग की थी.

इसके बावजदू उन्होंने राज्य व्यवस्था के इस शीर्ष पद को छोड़ दिया. उनके इस फैसले की चाहे जिस रूप में व्याख्या हो, बड़ी बात यह थी कि उन्होंने इस कदम से राजनीति में शुचिता को केंद्र में ला दिया. उनका यह फैसला चलताऊ राजनीति के बरखिलाफ है. एक दौर में वह लालू प्रसाद के अत्यंत निकट थे. राजनीतिक गलियारे में उनकी निकटता को इस मुहावरे से व्यक्त किया जाता था: दोनों में दांत कटी रोटी है. लालू प्रसाद मुख्यमंत्री थे.

राज-पाट चालने के तरीकों पर नीतीश कुमार की असहमति सामने आने लगी थी. आखिरकार उन्होंने 1995 में अपनी अलग राह चुनी. उन्हें करीब से देखने वाले लोगों का कहना है कि नीतीश कुमार के व्यक्तित्व में एक किस्म की निरंतरता है, जो बेहतर समाज निर्माण, बेहतर शासन देने के पक्ष में खड़ा दिखता है. भाजपा से अलग होने के पहले तक सुशील कुमार मोदी उन्हें पीएम मैटेरियल कहा करते थे. दरअसल, राजनीति के मौजूदा मिजाज के हिसाब से किसी को अहसास नहीं था कि नीतीश इस्तीफे की हद तक चले जायेंगे. गाइसल रेल हादसे के दौरान भी उन्होंने नैतिक जिम्मेदारी लेते हुए इस्तीफा दे दिया था. तब वह केंद्र में अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार में रेल मंत्री थे. उनके इन फैसलों को उनकी बातों से जोड़कर

देखने से बात और खुलती है. वे कहते हैं: राजनीति में वह सेवा की भावना से हैं. क्या ऐसा नहीं लगता की राजनीति करने वाले सभी बंदे कहते तो यही हैं, पर नीतीश की तरह करता कोई नहीं.

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