अधिकार रैली से हुंकार की तुलना नहीं
रैलियों से नेताओं की ताकत का अंदाजा लगता रहा है. बिहार की रैलियां संख्या बल को लेकर देश भर में चर्चित रही हैं. राजनीतिक दलों ने अपनी मांगों को लेकर बिहार में बड़ी रैलियां आयोजित की हैं. इन रैलियों के नायक राजद प्रमुख लालू प्रसाद और मुख्यमंत्री नीतीश कुमार भी रहे हैं. समाजवादी नेता राम […]
रैलियों से नेताओं की ताकत का अंदाजा लगता रहा है. बिहार की रैलियां संख्या बल को लेकर देश भर में चर्चित रही हैं. राजनीतिक दलों ने अपनी मांगों को लेकर बिहार में बड़ी रैलियां आयोजित की हैं. इन रैलियों के नायक राजद प्रमुख लालू प्रसाद और मुख्यमंत्री नीतीश कुमार भी रहे हैं. समाजवादी नेता राम मनोहर लोहिया, जॉर्ज फर्नाडीस, राम विलास पासवान, उपेंद्र कुशवाहा ने भी गांधी मैदान मे रैली की और अपना राजनीतिक कद बढ़ाया. इस बार भाजपा और इसके समर्थकों का जोश उफान पर है. नरेंद्र मोदी के समर्थकों का मानना है कि रैली के बाद बिहार में भी भाजपा के पक्ष में गोलबंदी होगी और नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री बन जायेंगे.
लालू के शासन काल में जितनी भी रैलियां हुईं, सभी उनके मुख्यमंत्री बनने के बाद ही हुई. लेकिन, इन रैलियों से लालू प्रसाद का न सिर्फ जनाधार बढ़ा, बल्कि राष्ट्रीय फलक पर भी वे छा गये. गरीब रैली की भीड़ ने उन्हें देश के लोकप्रिय नेताओं में से एक बना दिया. इसके बाद लालू ने कई रैलियां आयोजित कीं. मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के राजनीतिक जीवन में भी रैलियोंकामहत्व है. नवंबर, 2012 को उन्होंने गांधी मैदान में अधिकार रैली आयोजित की. भीड़कीसंख्या से यह रैली भी ऐतिहासिक मानी जाती है. नीतीश कुमार ने अधिकार रैली के माध्यम से विशेष राज्य का दर्जा को लेकर केंद्र को बिहार की भावनाओं से अवगत कराया. साथ ही पिछड़े राज्यों को गोलबंद करने का आह्वान भी किया. इस रैली के बाद नीतीश कुमार को पिछड़े राज्यों के अगुआ के रूप में देखा गया. पटना रैली के बाद नीतीश कुमार ने इस वर्ष दिल्ली में अधिकार रैली का आयोजन किया. रामलीला मैदान में आयोजित यह रैली भी अब तक की सबसे बड़ी रैली मानी गयी.
दिल्ली को बिहार की ताकत क ा अंदाजा दिलाया गया. इसके पहले नीतीश कुमार करीब 20 वर्ष पहले गांधी मैदान में कुर्मी चेतना रैली में शामिल हुए थे. जानकार बताते हैं कि जाति आधारित इस रैली में वह शामिल होना नहीं चाहते थे, लेकिन मित्रों के दबाव पर वह बीच रैली में गांधी मैदान पहुंचे थे. उनको जानने वाले इस रैली को उनके राजनीतिक जीवन के लिए एक नया मोड़ मानते हैं. कुछ दिनों बाद 19 अक्तूबर, 2004 को गांधी मैदान में ही बिहार बचाओ रैली आयोजित हुई. इसमें जॉर्ज फर्नाडीस, नीतीश कुमार भी शामिल हुए. इसी रैली में समता पार्टी के गठन का निर्णय हुआ.
कभी नीतीश कुमार के खास रहे उपेंद्र कुशवाहा ने जब अलग राह पकड़ी, तो उन्होंने भी गांधी मैदान में रैली का सहारा लिया. 2007 में किसान रैली, और फिर नव निर्माण रैली का आयोजन उनके खाते में दर्ज है.
अलग होने के बाद एक बार फिर उपेंद्र जदयू के साथ हुए. उन्हें राज्यसभा भेजा गया. लेकिन, 2010 के विधानसभा चुनाव के दौरान पार्टी के साथ मतभेद हुआ. कुछ दिन बाद उन्होंने अपनी अलग राह बनायी और इस वर्ष बिहार नव निर्माण रैली का आयोजन किया. इसी प्रकार लोजपा नेता राम विलास पासवान ने भी गांधी मैदान में रैली कर बिहार में अपनी पहचान बनायी है.
लोकसभा चुनाव के अब महज पांच-छह महीने बाकी है. भाजपा को उम्मीद है कि पीएम पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी के गांधी मैदान में आगमन से पूरे राज्य में पार्टी के पक्ष में माहौल बनेगा. पार्टी अब तक की सभी रैलियों का रिकॉर्ड तोड़ने का अभियान चला रही है. इसी मैदान में अयोध्या में राम मंदिर के निर्माण को लेकर लालकृष्ण आडवाणी की भी सभा हो चुकी है.
रैलियों का सिलसिला पुराना है
बिहार रैलियों का प्रदेश रहा है. जेपी के जमाने की रैली, उससे भी पहले विनोबा की रैली और राममनोहर लोहिया की रैली. 1990 के दशक में लालू प्रसाद की रैली. हाल के दिनों में नवंबर, 2012 की जदयू की अधिकार रैली और अब 27 अक्तूबर की नरेंद्र मोदी की हुंकार रैली.
गांधी मैदान गवाह रहा है बड़ी रैलियों का और उसके पहले विशाल सभाओं का. पहले रैलियां नहीं, राजनीतिक दलों की सभा और अधिवेशन हुआ करते थे. 1967 में राम मनोहर लोहिया की विशाल सभा हुई थी. 1960 के दशक में भाकपा ने भी कई जन सभाएं आयोजित कीं. 1970 के दशक में जेपी आंदोलन के दौरान भारी भीड़ की उपस्थिति का गवाह रहा गांधी मैदान. इसके बाद आया 1980 का दशक. चुनावी सभाओं को छोड़ दिया जाये, तो इस दशक में रैली और सभाओं का खालीपन देखा गया. इस समय दिल्ली और पटना दोनों जगहों पर कांग्रेस की सरकारें थी. समाजवादियों की नजर में यह खाते -पीते अघाये लोगों की सरकार थी, जिन्हें रैली और जनसभा से कोई खास सरोकार नहीं था. रैली तो विरोधी दलों के हिस्से था.
1942 : जेपी अभिनंदन
मौखिक आमंत्रण
गांधी मैदान (पुरान नाम लॉन) में रैलियों और सभा की शुरुआत 1942 से होती है. जय प्रकाश नारायण अपने साथियों के साथ जेल से निकल भागे थे. जब परिस्थितियां सामान्य हुई, तो उनके मित्रों ने नागरिक अभिनंदन आयोजित किया. गांधी मैदान में बड़ी सभा हुई. भारी संख्या में लोग आये थे. उन दिनों प्रचार प्रसार का आज की तरह कोई ऐसा साधन उपलब्ध नहीं था. चिट्ठी, तार और जिलों में कार्यरत कार्यकर्ता लोगों से संवाद करते और भीड़ चली आती थी.
1954 : नेहरू आये – छात्र आंदोलन का दौर
इसके पहले गांधी मैदान में आजादी के बाद जब देशव्यापी दंगों की आग बिहार तक पहुंचने लगी, तो महात्मा गांधी पटना आये. गांधी मैदान में उनकी सभा हुई. गांधी जी को देखने और सुनने बड़ी संख्या में लोग आये थे. इसके पूर्व 1954 में एक चर्चित सभा हुई थी. इसमें देश के तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू आये थे. प्रदेश में कांग्रेस की सरकार थी. नेहरू जी के आने का खूब प्रचार-प्रसार हुआ. बड़ी संख्या में युवकों ने भी इसमें हिस्सा लिया था. दरअसल, उन दिनों पटना विश्वविद्यालय के बीएन कॉलेज में पुलिस की गोली से एक छात्र की मौत हो गयी थी. इसको लेकर छात्र संघर्ष पर उतारू थे. छात्र आंदोलन का माहौल बनता दिख रहा था. नेहरू जी आये तो बड़ी संख्या में लोग उन्हें देखने और सुनने आये थे.
1960 : भाकपा का दौर रैलियों के नाम नहीं होते थे
1960 के दशक में ही गांधी मैदान में भाकपा का महाधिवेशन हुआ था. फरवरी, 1968 में हुए इस महाधिवेशन में भाकपा से जुड़े बड़ी संख्या में लोग आये थे. संख्या के दृष्टिकोण से यह यादगार माना जाता है. उन दिनों भाकपा का राज्य में बड़ा जनाधार था. विधानसभा में भी उसकी दमदार उपस्थिति थी. बाद के दिनों में तीन जून, 1975 को गांधी मैदान में भाकपा की बड़ी रैली हुई. इसके बाद सितंबर, 1977 में लोकसभा चुनाव के बाद हुई रैली में भी बड़ी संख्या में लोग गांधी मैदान में पहुंचे थे. भाकपा के वरिष्ठ नेता बद्री नारायण लाल और इंदुभूषण बताते हैं कि उन दिनों रैलियों के नाम नहीं हुआ करते थे.
1967 : लोहिया की ताकत
न होर्डिग, न बैनर, लोग खुद आये, दरी साथ लाये
1967 में विधानसभा चुनाव के पहले राममनोहर लोहिया की बड़ी सभा गांधी मैदान में आयोजित हुई थी. इस समय लोग गाड़ियों में नहीं लाये गये थे. स्वत: बसों और ट्रेनों में लद कर बड़ी संख्या में लोग गांधी मैदान पहुंचे थे. पार्टी की ओर से परचा बंटा था. जिलाध्यक्षों ने इसे निचले स्तर तक पहुंचाया था. रैली के दिन गांधी मैदान में भारी भीड़ उमड़ी थी. ट्रेनों की बुकिंग नहीं हुई थी. होर्डिग का नामोनिशान नहीं था. गांधी मैदान में पूर्व में बने मंच पर ही दरी बिछायी गयी थी. दरी पर ही खड़े होकर डॉ लोहिया ने भाषण दिया था. समाजवादी नेता और वर्तमान में पुस्तकालय प्राधिकार के अध्यक्ष प्रो रामवचन राय बताते हैं-मैं उन दिनों पोस्ट ग्रेजुएट का छात्र था. हम सब होस्टल से लोहिया को सुनने आये थे. लोहिया ने उन दिनों मध्य प्रदेश में समता विद्यालय खोलने की घोषणा की थी. इस सभा में उन्होंने लोगों से इसके लिए सहयोग करने की अपील की थी. गांधी मैदान में एक गमछा बिछा दिया गया. इसी पर किसी ने दो रुपये, तो किसी ने चार रुपये दान में दिये. इस विशाल सभा के बाद हुए चुनाव में बिहार समेत आठ राज्यों में गैर कांग्रेसी सरकारें बनीं.
1975 जेपी आंदोलन
गांधी मैदान से उठी ऐतिहासिक आवाज, देशभर में संपूर्ण क्रांति
जेपी आंदोलन के समय भी गांधी मैदान का ऐतिहासिक स्वरूप उभर कर सामने आया. पांच जून, 1975 की रैली अब तक की सबसे विशाल रैली मानी जाती है. इसी रैली में जय प्रकाश नारायण ने संपूर्ण क्रांति का नारा दिया था. बड़ी संख्या में लोग खास कर युवक जेपी को सुनने आये थे. तत्कालीन सरकार की ओर से भीड़ को रोकने के कई उपाय किये गये थे, लेकिन सड़क, नदी और ट्रेन से लद कर युवकों का जत्था गांधी मैदान पहुंचा था. जेपी आंदोलन के समय गांधी मैदान में कई बार सभाएं हुईं.
1990 का दशक लालू का आगाज
अब रैली का मतलब शक्ति प्रदर्शन, कुरसी की दावेदारी
रैलियों की वास्तविक शुरुआत 1990 के दशक से आरंभ होती है. जब विरोधियों के हाथों में राज्य शासन का बागडोर आया. इसके पहले कांग्रेसी राज में रैलियों की जरूरत महसूस नहीं हुई. लालू जब सत्ता में आये, तो चर्चित रैलियों का आयोजन हुआ. अब रैलियों को संख्या बल के सहारे व्यक्तिगत ताकत प्रदर्शन के माध्यम के रूप में देखा गया. गरीब रैली, लाठी रैली लालू की सफल रैलियां मानी जाती हैं. इन रैलियों के दिन राजधानी ठहर- सी जाती थी. छोटे छोटे व्यापारियों, स्थानीय लोगों को भारी परेशानी उठाना पड़ी थी. 2003 की लाठी रैली के दिन ही भाजपा के एक स्थानीय नेता की हत्या भी हुई. रैली आयोजित करने के नाम पर पैसे वसूले जाने के मामले भी सामने आये. हालांकि, आयोजक पार्टी की ओर से इन सब आरोपों को खारिज किया जाता रहा. 2009 में लालू प्रसाद ने 23 दिसंबर को गरीब किसान मजदूर रैली का निर्णय लिया था. इसकी पूरी तैयारी हुई, लेकिन रैली के दो दिन पहले इसे रद्द कर दिया गया.
2004 की कुर्मी चेतना रैली
13 फरवरी, 2004 को कुर्मी रैली का भी आयोजन हुआ था. इस रैली में एक खास वर्ग के लोग शामिल हुए थे, लेकिन संख्या के आधार पर इसे बड़ी रैली के रूप में लोग याद करते हैं. रैली के आयोजक पूर्व विधायक सतीश कुमार की मानें, तो कुल 6868 गाड़ियों में लद कर लोग गांधी मैदान पहुंचे थे. उन दिनों झारखंड भी बिहार का ही हिस्सा हुआ करता था. वहां से भी डेढ़ सौ बसों में लोग रैली में पहुंचे थे. रैली का उद्घाटन तत्कालीन लोकसभाध्यक्ष रवि राय ने किया था. रैली में दूसरे प्रांत के लोगों ने भी हिस्सा लिया था.
लालू की रैली
वर्ष रैली
1995 गरीब रैली
1996 गरीब रैला
1997 महागरीब रैला
1998 लोकतांत्रिक मोरचा की एकजूटता रैली
2003 लाठी रैली
2005 भाजपा भगाओ देशबचाओ रैली
2007 चेतावनी रैली
2012 परिवर्तन रैली
अधिकार जैसे मिसाल की जरूरत
रैली, महारैली, महारैला. पटना का ऐतिहासिक गांधी मैदान बिहार के राजनीतिक दलों की रैलियों से गुलजार होता रहा है. हर साल अमूमन कोई न कोई राजनीतिक दल अपने शक्ति प्रदर्शन के लिए रैली किया करता है. लाखों लोगों के मौजूद होने का दंभ भी भरा जाता है. लेकिन, अब तक की हुई तमाम रैलियों में अगर सभी कसौटियों पर जदयू की अधिकार रैली को तोला जाये, तो यह सब पर भारी पड़ेगी. यह पहली रैली रही, जो आर्थिक मुद्दे पर थी. बिहार जैसा राज्य, जहां सबसे कम साक्षरता, सबसे अधिक गरीबी व बेरोजगारी है, इसके बावजूद बिहार भी विकास के पायदान पर ऊंचा जाये, इसके लिए लोगों ने एकजुटता दिखायी. इस रैली में आने वालों को पता था कि वे इस रैली में क्यों आये हैं.
कोई हुड़दंग नहीं
जदयू ने इस रैली के लिए ऐसी व्यवस्था की थी कि आम नागरिकों को किसी तरह की परेशानी न हो. शहर के बाहरी छोर पर ही बड़े व छोटे वाहन रोक दिये गये. हवाई अड्डा, बस स्टैंड, अशोक राजपथ, राजेंद्रनगर की ओर से हजारों लोगों का रेला पैदल गांधी मैदान की ओर आया-गया. लेकिन, ठेले वाले, खोमचे वाले, रिक्शा वाला, दुकानदार, सबों के चेहरे पर शांति का भाव था.
समय पालन
रैली ठीक 11 बजे शुरू हो गयी. हर नेता को दो-दो मिनट का समय दिया गया. संचालन का जिम्मा जल संसाधन मंत्री विजय कुमार चौधरी ने संभाला. रैली समाप्त करने का समय दिन के ढाई बजे का था. समय पालन की यह जीवंत मिसाल रही कि समय से 15 मिनट पहले सवा दो बजे ही रैली समाप्त कर दी गयी.
अधिक थी भीड़
रैली में लाखों लोग आये. जदयू ने लोकनायक जयप्रकाश नारायण की रैली के समकक्ष या उससे भी अधिक भीड़ का दावा किया. धुर विरोधी से आम नागरिक तक ने माना कि अधिकार रैली में आने वालों की संख्या अच्छी खासी थी. जितने लोग गांधी मैदान में थे, उससे कहीं अधिक शहर की सड़कों पर.
संदेश : रैली ने देश के उन पिछड़े राज्यों को भी संदेश दे गया कि अगर ऐतिहासिक कारणों से बिहार पिछड़ा रहा, तो आवाज उठाने में हम पीछे नहीं रहेंगे. अगर मांगने से हक नहीं मिला, तो लड़ कर उसे हासिल करना होगा.
परिणाम : इस रैली का ही परिणाम रहा कि बिहार को 12 हजार करोड़ का विशेष पैकेज मिला.
अधिकार रैली से हुंकार की तुलना नहीं
मुद्दा आधारित रैली में लोग खुद आये थे : वशिष्ठ
रैली में आम लोग भी आये
आगामी 27 अक्तूबर को भाजपा की हुंकार रैली होनी है. सत्ताधारी दल जदयू इस रैली की अधिकार रैली से तुलना करने से गुरेज कर रहा है. पार्टी का मानना है कि अधिकार रैली की तुलना अब तक की हुई किसी भी रैली से नहीं की जा सकती. वह मुद्दा आधारित व राज्यहित के लिए रैली थी.
रैली में दिखता है पार्टी का चरित्र
जदयू के प्रदेश अध्यक्ष सह सांसद वशिष्ठ नारायण सिंह ने कहा कि अधिकार रैली का मकसद जदयू की ताकत बढ़ाना नहीं था. वह पहली रैली थी, जो किसी राजनीतिक दल ने अपने स्वार्थ के बजाय राज्यहित के मुद्दे पर हुई थी. रैली में आनेवाले लोगों के चेहरे को देख कर समझा जा सकता था कि बिहार पिछड़ा है. पिछड़ेपन से उबरने के लिए लोग उस रैली में स्वत:स्फूर्त ढंग से शामिल हुए थे. वैसे भी किसी रैली से उस पार्टी का चरित्र भी झलकता है. अनुशासन, योजना व समय पर तय जिम्मेवारियों को पूरा करने के कारण ही अधिकार रैली बेहद सफल रही थी. जदयू ने उस रैली में किसी को घर से बाहर नहीं निकलने या यात्र नहीं करने की अपील नहीं की थी. भाजपा को तो बिहारियों पर ही भरोसा नहीं है. दूसरे राज्य से मंच लाया जा रहा है. ऐसा लगता है, मानों बिहार में मंच बनानेवाला ही नहीं है. बिहारियों से भरोसा उठ गया है.
हमारी रैली में था आत्मानुशासन
अधिकार रैली में आम लोगों ने इस रैली में बढ़-चढ़ कर भाग लिया था. जितने लोग गांधी मैदान में थे, उससे अधिक शहर की सड़कों पर थे. आम लोग भी आते-जाते रहे. दुकानें खुली रहीं. लाखों की भीड़ के बावजूद कहीं कोई अप्रिय घटना नहीं हुई. राज्य का ऐसा कोई कोना नहीं था, जहां से लोग नहीं आये.
जिस गाड़ी से लोग पटना आये, उसे शहर के बाहर रखा गया. ट्रेन से आये लोग सीधे गांधी मैदान आये. बसों या अन्य वाहनों से आने वालों को गर्दनीबाग, जगदेवपथ व कंकड़बाग की ओर ही रखा गया. वहां से लोग पैदल ही गांधी मैदान या पार्टी नेताओं के आवास तक आये. एक भी वाहन शहर में नहीं था. शहर अस्त-व्यस्त नहीं हुआ. शहर की दुकानें आम दिनों की तरह खुली रहीं. लोगों को शहर से बाहर जाने के लिए रेलवे स्टेशन पहुंचने व ट्रेन पकड़ने में कोई कठिनाई नहीं हुई. लोगों ने आत्मानुशासन का परिचय दिया.
क्या है हुंकार के मायने
भाजपा ने हुंकार रैली आयोजित की है. प्रभात खबर ने भाजपा नेताओं से हुंकार का अर्थ जानने की कोशिश की. नेताओं ने अपने तरीके से हुंकार की व्याख्या की. किसी ने इसकी विस्तृत व्याख्या की, तो किसी ने जनता के आक्रोश की अभिव्यक्ति बताया.
व्यथा उद्वेलित करने का माध्यम है हुंकार
‘ व्यक्ति हुंकार तभी भरता है, जब वह पीड़ित होता है. यह मन की व्यथा को उद्वेलित करने का माध्यम है. हुंकार में व्यक्ति के संघर्ष का भाव भी रहता है और विजय की तीव्र इच्छा भी होती है.
मंगल पांडेय, प्रदेश अध्यक्ष, भाजपा
जब व्यक्ति व्यवस्था और समाज में गड़बड़ी देखता है, तो हुंकार भरता है. सिस्टम में गड़बड़ी, अत्याचार, भ्रष्टाचार और तानाशाही के खिलाफ ताकतवर आवाज है हुंकार. इसका इस्तेमाल विकट स्थिति में ही लोगों को करना पड़ता है. भाजपा मान रही है कि आज देश विकट स्थिति में है.
नंद किशोर यादव, विधान सभा में प्रतिपक्ष के नेता
हिंदी शब्दकोशों के मुताबिक
हुंकार का शाब्दिक अर्थ होता है जोर से बोलना, गजर्ना.