प्रभात संवाद कार्यक्रम में भाग लेने प्रभात खबर कार्यालय पहुंचे बॉलीवुड अभिनेता मनोज बाजपेयी ने बताया कि उन्होंने तीन बार एनएसडी के लिए प्रयास किया, लेकिन उनको हर बार असफलता मिली. हर रिजेक्शन के बाद उनका प्रयास दोगुना होता गया. बार-बार मिले इसी रिजेक्शन ने उनको बेहतरीन एक्टिंग सीखने में मदद की. उन्होंने बताया कि दिल्ली में गुजारे दस साल में मिली अभिनय की सीख ने ही उनको मुंबई में बतौर एक्टर स्थापित होने में मदद की. पढ़िए प्रभात खबर के सवाल और मनोज बाजपेयी के जवाब …….
उत्तर : 14 साल की उम्र में राज बब्बर और नसीर साहब के इंटरव्यू को पढ़-पढ़ कर प्रेरित हुआ. 17 साल की उम्र में ही डिसाइड कर लिया था कि अभिनय में ही कैरियर बनाना है. लेकिन, अभिनय से पहले क्राफ्ट और थियेटर सीखने की इच्छा थी, इसलिए दिल्ली चला गया. निश्चय किया कि पहले विधा सीखूंगा, फिर मुंबई का रुख करूंगा. अभिनय में विद्या ही नहीं, भाषा की शुद्धता भी जरूरी है, इसलिए हिंदी व्याकरण सही-सही बोलने का अभ्यास किया. रसियन, चाइनीज लिटरेचर भी पढ़े. इस बीच तीन बार एनएसडी में दाखिल की कोशिश की, लेकिन तीनों बार रिजेक्ट कर दिया गया. हर बार अगले साल दाखिले की उम्मीद के साथ प्रयास करता, लेकिन असफलता मिलती. इसके बाद दोगुनी मेहनत से प्रयास करता. इसी रिजेक्शन ने मुझे बेहतरीन एक्टिंग सीखने में मदद की.
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उत्तर : दिल्ली में दस साल कैसे गुजरे, पता ही नहीं चला. रंगमंच का वह क्रांतिकारी दौर था, जिसमें मुंबई जाने का सपना भी भूल गया. बिलकुल गांव की संस्कृति थी. मुंबई का संस्कार नहीं, जहां पड़ोसी को भी नहीं जानते. हर दिन सुबह 4.30 बजे उठना, पौने सात बजे तक तैयार होकर बस स्टैंड पर पहुंच जाना, यह सब रूटीन हो गया था. बस के पैसे नहीं होते तो पहले ही निकल जाता था. सीखने का जुनून था. मुझे पता था कि मेरी अभिनय विद्या ही मेरा गॉडफादर होगा. मेरे जीवन में दिल्ली का बहुत बड़ा योगदान है. जो सीखा, वहीं सीखा. मुंबई में उसको आगे बढ़ाया. 10वें साल जाकर शेखर कपूर जी के बैंडिट क्वीन का ऑफर मिला.
उत्तर : दिल्ली से मुंबई पहुंचा तो देखा कि निर्देशकों के घर के बाहर लंबी लाइनें लगी हैं. अखरता था कि सीधे गांव से पहुंचे व्यक्ति और रंगमंच से सीख कर आये कलाकार दोनों को एक ही नजर से देखा जाता था. लोग सोचते थे कि कैसे एक्टर है जो न पूरा हीरो दिखता है और न पूरा विलेन. मुंबई के शुरुआती पांच साल काफी तनाव वाले दिन थे. भयानक सपने की तरह, जहां लगातार रिजेक्शन पर रिजेक्शन मिल रहे थे. सौरभ शुक्ला और हम दोनों चॉल में एक साथ रहा करते थे. बैंडिट क्वीन के बाद मुझे छोड़ कर सबको कुछ न कुछ काम मिला. चूंकि मेरी साइलेंट भूमिका थी, इसलिए नजर में नहीं आ सका. थियेटर करके आने के बावजूद काम नहीं मिलने की वजह से परेशान भी होता था. निर्माता-निर्देशकों से उनके वॉचमैन तक मिलने नहीं देते थे. लगातार आठ-दस बार रिजेक्ट हों तो अपने ऊपर से भी भरोसा खत्म होने लगता है. लेकिन, इन रिजेक्शन ने मुझे काफी मजबूत बनाया. लोग कहते हैं कि मैं प्रैक्टिकल हूं. इसकी वजह यही है कि शुरुआती दिनों से ही मैं ऐसे ही रहा.
उत्तर: अच्छा हुआ कि पंडित जी ने बाबू जी को बचपन मे ही बता दिया था कि अभिनेता भी बन सकता हूं. नेता तो कभी नही बनूंगा. हां, राजनीति को समझने मे मेरी बहुत रूचि है. बचपन मे घर से ही इसकी आदत पड़ी है. राजनीतिक समझ के चलते ही शायद राजनीति से जुड़ी मेरी फिल्में भी काफी हिट रही.