पटना. वो 90 का दशक था. जाति की रंग में सराबोर बिहार की राजनीति देश-दुनिया में चर्चित हो रही थी. कई क्षेत्रीय क्षत्रपों का बिहार में समानांतर दबदबा था. इन्हीं में से एक आनंद मोहन भी थे, इनकी तूती कोसी से लेकर मिथिलांचल के इलाके तक बोल रही थी. बिहार जातिवाद के ऐसे भंवर में फंस चुका था, जहां हर कोई किसी न किसी खेमे या गुट से बंधने को विवश था. वहीं हवा का यह रुख आनंद मोहन की राजनीति को परवान चढ़ा रहा था. यों तो आनंद मोहन 17 साल की उम्र में ही जेल जा चुके थे. पर उनकी राजनीतिक यात्रा 1990 से आरंभ हुई.
सहरसा जिले के महिषी विधानसभा सीट से आनंद मोहन जनता दल के टिकट पर पहली बार विधायक चुन लिये गये. आनंद मोहन ने तत्कालीन कांग्रेसी दिग्गज लहटन चौधरी को 62 हजार से अधिक मतों से पराजित कर संसदीय राजनीति में पहला कदम रखा. प्रदेश में लालू प्रसाद की सरकार थी. चुनाव आयोग के दस्तावेज बताते हैं कि 1996 में आनंद मोहन समता पार्टी के टिकट पर पहली बार शिवहर लोकसभा की सीट से सांसद निर्वाचित हुए. आनंद मोहन ने इस चनाव में जनता दल के रामचंद्र पूर्वे को पराजित किया था. पर, 1996 में गठित 11 वीं लोकसभा का कार्यकाल महज 13 महीने ही रहा. देश में मध्यकालीन चुनाव हुए.
1998 में आनंद मोहन ने आल इंडिया राष्ट्रीय जनता पार्टी के टिकट पर एक बार फिर शिवहर लोकसभा से दांव आजमाया. उन्हें जीत हासिल हुई. समता पार्टी ने इस चुनाव में हरिकिशोर सिंह को अपना उम्मीदवार बनाया था. हरिकिशाेर सिंह पराजित हो गये. 12 वीं लोकसभा भी अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर पाया.
अगले साल 1999 में एक बार फिर लोकसभा का चुनाव हुआ. इस चुनाव में आनंद मोहन बिहार पीपुलस पार्टी की टिकट पर उम्मीदवार थे और राजद के अनवारूल हक से महज तीन हजार से कुछ अधिक मतों से चुनाव हार गये. 2004 में उन्होंने एक बार फिर कोशिश की, मगर शिवहर सीट पर उन्हें पराजय का सामना करना पड़ा.