पांच लाख की जगह अब बिक रहे डेढ़ लाख दीये
तेल की बढ़ती महंगाई ने भी घटाया दीयों का डिमांड अररिया : दीपावली के दीप का महत्व कुछ इस कदर घटा कि दीप बनाने वाले कुम्हार की जिंदगी भी अंधेरों में खोने को विवश हो गया. न तो अब कुम्हार का चाक तेजी से चलता है न ही उनके घरों का चूल्हा ही ढंग से […]
तेल की बढ़ती महंगाई ने भी घटाया दीयों का डिमांड
अररिया : दीपावली के दीप का महत्व कुछ इस कदर घटा कि दीप बनाने वाले कुम्हार की जिंदगी भी अंधेरों में खोने को विवश हो गया. न तो अब कुम्हार का चाक तेजी से चलता है न ही उनके घरों का चूल्हा ही ढंग से जलता है. कुम्हार के दीप का स्थान कृत्रिम बल्बों ने ले लिया. दीपावली को अर्थ प्रदान करने वाले दीप को बनाने वाले कुम्हार के परिवार आज खस्ता हाल जिंदगी जीने को को लाचार हैं.
लोगों की तेज दौड़ती जिंदगी इतनी आराम पसंद हो गयी है कि वे दीपों के जगमगाहट से दूर भागने का प्रयास करने लगे हैं. धर्म के पौराणिक रीति रिवाज व सिद्धांतों को तो लोग मान रहे हैं. लेकिन पारंपरिक रिवाजों से धीरे-धीरे दूर होते जा रहे हैं. इसका एक कारण महंगी होती दीपों में भरने वाले सरसों के तेल भी हैं. बाजारों में बिकने वाले चकाचौंध कृत्रिम झालर युक्त बल्ब अब लोगों के घरों की शोभा बनने लगी हैं. दूसरी तरफ सरकार व प्रशासनिक उदासीनता का शिकार कुम्हारों की जिंदगी बदलने का प्रयास होता नहीं दिख रहा है. अगर जल्द ही कोई कारगार पहल नहीं हुआ तो कुम्हारों के चाक भी धीरे-धीरे बंद हो जायेंगे.
बेबस होकर इस काम को करना पड़ रहा है : कुम्हार की जिंदगी भी सीजन पर ही टिकी रहती है. दीपावली, दुर्गा पूजा, छठ व शादी विवाह के अवसर पर ही इनकी पूछ होती है. क्योंकि कुम्हार के द्वारा बनाये गये मिट्टी के बर्तनों को लोग इस वक्त शुभ मानते हैं. बांकी के दिन कुछ दुकानदारों की दया दृष्टि पर ही कुम्हारों के परिवार की जिंदगी चलती है.
अपने दु:ख को बयां करते वार्ड संख्या चार गाछी टोला के कुम्हारों ने बताया कि 12 लोगों के परिवार के भरण पोषण की जिम्मेदारी उनके कंधों पर है. सीजन अगर हो तो सारा परिवार मिल कर मेहनत करते हैं तो सात से आठ सौ रुपये तक की कमाई प्रति दिन हो जाती है. शादी के विवाह के मौकों पर बख्शीश के रूप में कुछ रुपये तो पत्नी के लिए साड़ी मिल जाती हैं. उन्होंने यह माना कि प्रतिदिन अगर कोई अन्य मजदूरी कर लूं तो साल भर में इससे ज्यादा कमा लूंगा. लेकिन पुराना रोजगार होने के कारण इस धंधे का लोभ पीछा नहीं छोड़ रहा है. उन्होंने कहा कि पहले लोग चाव से मिट्टी के बर्तनों का इस्तेमाल करते थे. लेकिन अब उनका स्थान कृत्रिम सामग्रियों ने ले लिया है.
दीप बनाने के लिए मिट्टी आता है राजापोखर से : जिले में एक समय में चार से पांच लाख दीयों की खपत होती थी, जो कि अब एक से डेढ़ लाख में सिमट गया है. कुम्हारों ने बताया कि उन्हें मिट्टी के बर्तन बनाने के लिए मिट्टी राजापोखर से लाना पड़ता है. यह दूरी लगभग 15 किलोमीटर है. लेकिन बर्तन बनाने के बाद इनकी मजदूरी भी नहीं निकलती. छोटा दीप 100 रुपये सैकड़ा, बड़ा दीप दो सौ रुपये सैकड़ा, ढिबरी दो सौ रुपये सैकड़ा, छठ में प्रयुक्त होने वाले हाथी कोसी 151 रुपये प्रति पीस (लोगों के श्रद्धानुसार), कूड़ी पांच रुपये प्रति पीस तक बिक जाती है.
सोशल मीडिया पर बढ़ रहे प्रचार का असर भी नहीं
हालिया दिनों में सोशल मीडिया पर इस बात का प्रचार तो बढ़ा है कि लोग कृत्रिम बल्बों के स्थान पर मिट्टी के दीयों को तरजीह दें. लेकिन बाजारों में बिक रहे कृत्रिम झालरों की खरीद को देखने के बाद ऐसा नहीं लगता कि लोग इस तरफ से अपनी जागरूकता घटा रहे हैं. चांदनी चौक पर दीयों का बाजार भी अब दीपावली की राह तक रहा है.
क्योंकि लोग जरूरत के हिसाब से ही दीयों की खरीद कर रहे हैं. लोगों के अनुसार दीयों में तेल की खपत होती है, जो कि महंगी होती जा रही है. मन तो करता है कि दीपों का इस्तेमाल ही करूं लेकिन महंगी होती तेल की कीमतों के कारण पॉकेट जबाव दे जाती है. फिर भी दीयों की खरीद करते हैं. उनके दीयों में रोज-रोज तेल डालने पड़ते हैं. लेकिन कृत्रिम लाइटों में एक बार इन्वेस्टमेंट होता है.