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बेजुबान औरतों की छोटी लड़ाई ने हासिल किया बड़ा मुकाम

आमगाछी पंचायत में वार्ड मेंबर बनकर भी राधा काटती हैं मिट्टी अजय कुमार अररिया : ajay.kumar@prabhatkhabar.in गऊ जैसी थीं यहां की औरतें. बोलती कम थीं. काम करती थीं ज्यादा. घर और बाहर का काम. घर का काम घर जैसा. बाहर के काम में पैसा मिलता है. पर बाहर का वह काम भी मिलना आसान नहीं […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | March 6, 2016 6:10 AM
आमगाछी पंचायत में वार्ड मेंबर बनकर भी राधा काटती हैं मिट्टी
अजय कुमार
अररिया : ajay.kumar@prabhatkhabar.in
गऊ जैसी थीं यहां की औरतें. बोलती कम थीं. काम करती थीं ज्यादा. घर और बाहर का काम. घर का काम घर जैसा. बाहर के काम में पैसा मिलता है. पर बाहर का वह काम भी मिलना आसान नहीं था.
काम कराने वाले ने बताया कि इसमें दलितों को काम नहीं मिलता है. सरकार ने कहा है दलित छोड़ सब काम करेंगे. महिला को तो हरगिज नहीं. यह बताते-बताते राधा देवी की आवाज भर्रा जाती है. कहती हैं: तो क्या दलित होना गुनाह है? औरत होने की ऐसी सजा? ऐसे अनगिनत सवाल उनके मन में उठने लगते हैं. इन सवालों का वह जवाब चाहती हैं.
पर यह बताने वाला कोई नहीं था. इसी बीच गांव से वह अररिया शहर पहुंचीं, दवा-बीरो के लिए. साथ में पति दीपनारायण पासवान थे. शहर में एक जगह कोई मीटिंग चल रही थी. वहां बताया जा रहा था कि मजदूरों को काम पाना उनका अधिकार है. यह काम कोई भी मांग सकता है. वहां एक परचा हाथ लग गया. पति-पत्नी पढ़ना-लिखना नहीं जानते थे. पर उस परचे से उनकी मुश्किल राह आसान होने वाली थी.
इसलिए उसे सहेज कर रख लिया. गांव लौटने पर पढ़े-लिखे नौजवानों से उस परचे को पढ़वाया. उसकी बात सुनकर मन में आया, कितना बड़ा छल किया जा रहा है हमसे. राधा कहती हैं: हम मनरेगा सचिव के पास गये. रोजगार सेवक के पास गये. काम के लिए दावा किया. पर काम नहीं दिया. उनका कहना था कि काम होगा, तो मिलेगा. हाकिमों की बात से दिल धक्क से रह गया. अब क्या किया जाये? कहां जांये? कई दिनों तक सोचते रहे.
मन में खयाल आया कि क्यों नहीं गांव की महिलाओं से बात की जाये. उनसे बात की. चार-पांच महिलाएं तैयार हुईं. फिर वे काम के लिए हाकिमों के पास पहुंच गयीं. राधा कहती हैं: हमें देखते ही साहब खिसिया गये. बोले, तुम फिर चली आयी? हमने उनसे कहा: काम तो हमें चाहिए, साहेब. इस परचे में भी लिखा है. परचे की बात सुनकर मुखिया के कान खड़े हो गये.
उन्होंने हमें दूसरे गांव में काम देने का वायदा किया. हम वहां गये. लेकिन वहां हमें काम नहीं मिला. भूखे-प्यासे थे हम. पांच-छह किलोमीटर आना-जाना था. एक पैसा भी नहीं था हमारे पास. इस बीच हमें डराने के लिए मेरे पति पर हमला हुआ. माथा फूट गया. शहर में उनका इलाज चला.
मिट्टी कटायी का काम मिला
गांव में ही मिट्टी कटायी का काम मिला. यह हमारी पहली जीत थी. हम बहुत खुश थे. अब हाजिरी रजिस्टर पर मजदूरों का नाम चढ़ाने की बात आयी. तब तक हम जान चुके थे कि रजिस्टर पर गलत-सलत नाम चढ़ाकर पइसा मार लेता है सब. इसलिए हम सतर्क थे. हमने कहा कि रजिस्टर पर हम ही नाम चढ़ायेंगे. चांदनी मेरी बेटी है. वह सातवीं क्लास में पढ़ती है.
हम मजदूरों का नाम उससे चढ़वाने लगे. रजिस्टर देखने के लिए रोजगार सेवक ने रजिस्टर हमसे ले लिया और पांच फर्जी नाम जोड़ दिया. एक दिन सब मजदूरों के सामने ही रजिस्टर पर दर्ज मजदूरों का नाम पढ़वाया गया, तो उसमें पांच फर्जी नामों का खुलासा हुआ. हमने फिर हल्ला मचाया. उन नामों को हटाया गया. काम मिलने और मजदूरों का भुगतान होने के बाद हमारे वार्ड, पंचायत का नाम हो गया.
चुनाव आया, तो मुझे बनाया उम्मीदवार
इसी बीच 2010 का पंचायत चुनाव आ गया. गांव के दलितों के मिलकर तय किया कि मुझे चुनाव लड़ना है. हमारा गांव सिकटी ब्लॉक के आमगाछी में पड़ता है. वार्ड नंबर नौ से हम उम्मीदवार हो गये. यह महिला सीट है. इस पर एक मंडल परिवार की महिला भी खड़ी थीं. राधा उस दिन को याद करती हैं: शहर से परचा छपकर आया था. मेरे पति उसे बांटने जा ही रहे थे कि पता चला कि उनके खिलाफ वारंट निकला है. पुलिस उनको खोज रही है.
यह नयी मुसीबत थी. लोकल थाने से मिलकर यह खेल कराया गया था. इसे हम समझ रहे थे. पति भागे-भागे अररिया गये. उन्हें बेल मिल गया. चुनाव का परचा बंट भी नहीं पाया. चुनाव में वोटों की गिनती हुई. मुझे 63 वोट मिले थे. दूसरे को 62. एक वोट का अंतर था. दो बार गिनती करवायी गयी. दोनों ही बार मेरा वोट 63 आया. हम चुनाव जीत गये. उनके मुताबिक सवा सौ रुपये कागज (परचा) भरने में लगा था. डेढ़ सौ में परचा छपाया गया था. गांव के मजदूरों ने ही पैसा जुटाया था.
राधा को मिली पहचान
मजदूरों को साल में सौ दिनों का काम मिलना आसान नहीं है. पर इस वार्ड के मजदूरों को बीते तीन-चार साल से सौ दिनों का काम मिल रहा है. राधा देवी को इससे बड़ी पहचान मिली. वह बताती हैं कि मजदूर घरों की कई महिलाएं इस चुनाव में खड़ा होने जा रही हैं.
उन्हें लगता है कि हक मांगने से नहीं मिलता. उसे लेना पड़ा है. हालांकि इस चुनाव में उनका वार्ड दलित के लिए सुरक्षित हो गया है. इस बार उनके पति चुनाव लड़ेंगे. वह कहती हैं: नीतीश बाबू महिलाओं को आगे बढ़ा रहे हैं. लेकिन समाज में खराब लोग हमें आगे नहीं बढ़ने देना चाहते. हम उनसे लड़ेंगे. लड़ाई जीतेंगे.
मनरेगा से जुड़े कुछ तथ्य
इस साल के केंद्रीय बजट में 38500 करोड़ रुपये का प्रावधान.
साल में हर परिवार तो 100 दिनों के काम का हक.
– ग्रामीण इलाकों में लोगों को रोजगार की गारंटी , पलायन रोकना और स्थायी संपत्ति का निर्माण
उद्देश्य.
– महिलाओं की कम से कम 33 फीसदी भागीदारी सुनिश्चित करने का प्रावधान.
– वर्ष 2009-2010 से लेकर 2014-15 तक पूरे देश में मनरेगा के काम में 30 फीसदी की गिरावट .
– मनरेगा का सबसे बेहतर प्रदर्शन वर्ष 2010-11 में रहा 16 करोड़ मानव दिवस , 46 लाख परिवारों को मिला काम, 2600 करोड़ खर्च.
– 2014 – 2015 में बिहार में 3.5 करोड़ मानव दिवस सृजित हुआ , 11 लाख परिवारों को मिला काम.
– 2015 -2016 में बिहार में 5.59 करोड़ मानव दिवस का काम हुआ. अभी तक जिसमे से 41 फीसदी भागीदारी महिलाओं की रही, 13 लाख परिवारों को मिला काम , 1470 करोड़ खर्च हुए. हर दिन की मजदूरी 177 रुपये जो न्यूनतम मजदूरी से भी कम है.
(राधा देवी और उनके पति दीपनारायण पासवान से फोन पर हुई बातचीत पर आधारित)
अररिया की कई पंचायतों में है मुकाबले की तैयारी
विश्वास जगा, संगठित हुए
मुखिया ने जब काम के लिए हमें बुलाया, तो यकीन हो गया कि हमारे लिए काम है. हम इसे अपनी पहली जीत मान रहे थे. कम से कम काम के लिए उसने बुलाया तो सहीं. भले अब तक वह काम हमें नहीं मिला था. हमारी हिम्मत बढ़ गयी.
कुछ और महिलाओं को लेकर हम मुखिया के पास गये. उन्हें घेरकर हल्ला-गुल्ला किया. हमारे साथ गांव के मर्द भी थे. इससे हमारी ताकत दोगुनी हो गयी थी. थक हारकर मुखिया ने कहा कि काम तो मिलेगा पर उसे भी आपलोगों को ही लाना होगा. मुखिया की इन बातों से हमारा विश्वास और बढ़ गया. हम जिस जमींदार की जमीन पर बसे हैं, उनके पास गये. उनसे हाथ जोड़कर कहा कि आप अपनी जमीन पर पोखर खुदवाने की इजाजत दे दीजिए. वह ना-नुकूर के बाद मान गये.
मजदूरी नहीं छोड़ी
राधा बताती हैं: चुनाव जीतने के बाद हमारा आत्मविश्वास बढ़ गया. हमने मनरेगा के तहत सौ दिन के काम की गारंटी की. जो काम करेगा, पैसा उसे ही मिलेगा. पहले तक बिना काम के पैसे निकालने का खेल चलता था. हमने साफ मना कर दिया. मुखिया के लोगों ने हमें लालच दिया: कहा गया कि सालाना पचास हजार देंगे. लेकिन हम जैसे चाहते हैं, वैसे मस्टर रौल तैयार करना होगा. हमने उनसे कहा दिया: पाप का पइसा नहीं चाहिए. वार्ड मेंबर बन जाने के बाद मजदूरी क्यों करती रहीं? राधा कहती हैं: हम मजदूर हैं. यही हमारी पहचान है.
लूटतंत्र को तोड़ रहीं महिलाएं
मनरेगा में लूटतंत्र को यहां की महिलाएं चुनौती दे रही हैं. यही नहीं, बल्कि वह अपना हक भी ले रही हैं. यह बड़ा बदलाव है. मजदूरों को लगता है कि जब सरकार उनके लिए काम दे रही है, तो उसे लेना उनका हक है. और इसका पैसा कोई खैरात में मिलेगा नहीं, हम अपना देह गलाते हैं. तब जाकर 177 रुपया मिलता है. इसमें शक नहीं कि काम को लेकर जागरुकता बढ़ी है.

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