न मान रहा, न कद्रदान

कुर्था (अरवल) : कभी नयी नवेली दुल्हन के जोड़ों पर रंगरेजों की कला निखरती थी. इनकी कलाकारी के बगैर दुल्हन की शादी के जोड़े अधूरे माने जाते थे. रंगरेजों द्वारा सजाये दुल्हन के जोड़े के बगैर मुसलिम समाज में निकाह संभव नहीं होता था. वहीं,आज इन रंगरेजों की कला इस आधुनिकता के दौर में एक […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | June 5, 2015 7:07 AM

कुर्था (अरवल) : कभी नयी नवेली दुल्हन के जोड़ों पर रंगरेजों की कला निखरती थी. इनकी कलाकारी के बगैर दुल्हन की शादी के जोड़े अधूरे माने जाते थे. रंगरेजों द्वारा सजाये दुल्हन के जोड़े के बगैर मुसलिम समाज में निकाह संभव नहीं होता था. वहीं,आज इन रंगरेजों की कला इस आधुनिकता के दौर में एक इतिहास बन कर रह गयी.

आज इनके कला के कद्रदानों में भी भारी कमी आ गयी है. इनके कला के साथ-साथ इनके व्यवसाय भी विलुप्ति की ओर अग्रसर होती चली गयी. आज से दो तीन दशक पूर्व जहां बिहार यूपी समेत अन्य राज्यों के तमाम शहरों में रंगरेजों का व्यवसाय परवान पर था. वहीं आज के दौर में इक्के -दुक्के ही रंगरेज दिखते हैं और जो हैं भी उनका परिवार भुखमरी की स्थिति में है.

पुश्तो से इस व्यवसाय से जुड़े रहनेवाले रंगरेज व्यवसायी भी अपनी वर्तमान पीढ़ी को इस व्यवसाय से जोड़ना नहीं चाहते. अपने हाथों की कला से दुल्हन के सुंदरता में चार चांद लगानेवाले इन रंगरेजों की आज कोई पूछ नहीं रही. आज के इस आधुनिक युग के दौर में रंगरेजों की छपाई की जगह जरी वर्क व कसीदा वर्क क अत्याधुनिक साड़ियों ले रखी है.

हालांकि मुसलिम समाज के कुछ समुदाय में अभी भी इन रंगरेजों के जोड़ों का महत्व है. लेकिन, वहां भी बाजार में रेडिमेड छपाई वाले जोड़े की उपलब्धता रंगरेजों के परंपरागत व्यवसाय को चौपट कर रहा है. चुकी कंप्यूटर प्रिंट वाली छपाई के जोड़े ज्यादा साफ और स्पष्ट दिखते हैं, साथ ही उनकी कीमत कम होती है, इसलिए बाजार में रेडिमेड छपाई वाले जोड़े की मांग ज्यादा है.

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