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साढ़े चार वर्षों तक अंग्रेज पुलिस करती रही तलाश

भूमिगत रहकर आजादी की लड़ाई में निभायी अहम भूमिका

By Prabhat Khabar News Desk | August 13, 2024 10:27 PM

दाउदनगर. दाउदनगर शहर के मेन रोड निवासी स्वतंत्रता सेनानी केदार नाथ गुप्ता ने करीब साढ़े चार वर्षों तक भूमिगत रहकर अंग्रेजों के छक्के छुड़ा दिये. वे देश की आजादी तक अंग्रेजों के हाथ नहीं लगे. रामदास लाल के दो पुत्रों में से एक केदारनाथ गुप्ता का जन्म 29 जनवरी 1923 को हुआ हुआ था. प्रारंभिक शिक्षा दाउदनगर में ही हुई. उच्च शिक्षा शिफ्टन हाई स्कूल (अब अशोक इंटर स्कूल) में हुआ, जहां आजादी के बाद कुछ दिनों शिक्षक भी रहे. 1940 में इंटरमीडिएट पटना यूनिवर्सिटी पटना के साइंस कॉलेज से किया. स्नातक की शिक्षा भी उन्होंने पटना यूनिवर्सिटी से ही प्राप्त करना शुरू कर दिया. उसी दौरान एक 11 अगस्त 1942 को पटना में हुए आंदोलन में भी शामिल हुए और पटना गोली कांड में बाल-बाल बच गये. एक गोली इनकी कनपट्टी के बगल से निकल गयी. उस समय यह पटना के लोलो छात्रावास में रहकर पढ़ाई करते थे. पटना साइंस कॉलेज के छात्र थे. पटना गोली कांड के बाद अंग्रेज पुलिस का दमन शुरू हो गया. वे उसी रात में अपने साथियों के साथ पैदल पटना से निकले और दानापुर में जाकर अपने रिश्तेदार के यहां रुक गये. 13 या 14 अगस्त को अपने 15-20 साथियों के साथ पैदल चलकर दाउदनगर पहुंचे. यहां पहुंच कर उन्होंने अपने साथियों को पटना गोलीकांड का आंखों देखा हाल सुनाया. 1942 में पटना में सात छात्रों की शहादत के बाद पूरा देश उद्धेलित था. 18 अगस्त 1942 को दाउदनगर के चावल बाजार में एक सभा हुई, जिसमें क्रांतिकारी भाषण दिये. उस सभा में वे अपने चाचा अनंत लाल के साथ सभा में शामिल हुए. उन्होंने पटना गोलीकांड का वाक्या उस सभा में सुनाया. उसी दिन आजादी के दीवाने युवा टोली ने शिफ्टन हाई स्कूल में तोड़फोड़ किया. आबकारी गोदाम और पोस्ट ऑफिस को जला दिया गया. इस आंदोलन के बाद अंग्रेजों ने क्रूरता पूर्वक दमन करना शुरू कर दिया. युवाओं की गिरफ्तारी का वारंट जारी कर दिया गया. घर को कुर्क करने का आदेश जारी कर दिया गया. अंग्रेजों ने परिवार वालों को घसीट कर घर से बाहर निकाल दिया. स्वतंत्रता सेनानियों की गिरफ्तारियां शुरू हो गयी. इसी क्रम में इनके घर को भी घेर लिया गया. ये घर के पीछे से कूदकर एक-दूसरे घर में चले गये और रात में भेष बदलकर पुराना शहर माली टोला निवासी महावीर माली के साथ सोन नदी पार कर सोन नदी पार कर नासरीगंज चले गये. वहां से वे रोहतास जिले के तिलौथू चले गए. तिलौथू में गुमनाम रहकर ट्यूशन पढ़ाना शुरू कर दिया और स्वतंत्रता आंदोलन में भूमिगत रहकर अपनी भूमिका निभाते रहे. अंग्रेज पुलिस को जैसे ही इनके तिलौथू में होने की सूचना मिली तो पुलिस गिरफ्तार करने के प्रयास में जुट गई .लेकिन पुलिस उन्हें पहचानती नहीं थी. वहां से वे गढ़वा (अब झारखंड) निकल गये. फिर छत्तीसगढ़ के बलरामपुर रामानुजगंज के जंगलों में रहकर इन्होंने दरगाही लाल केसरी के साथ रहकर स्वतंत्रता आंदोलन को गति प्रदान की और अपनी भूमिका निभाते रहे. इस दौरान इनके घर की कुर्की जब्ती भी की गयी. अंग्रेजों ने इनके परिवार पर कहर ढाहा. लेकिन फिर भी ये अंग्रेज पुलिस के हाथ नहीं आ सके. इनकी एक ही जिद थी कि अंग्रेज पुलिस के हाथ नहीं आना है और देश को आजाद कराना है. करीब साढ़े चार वर्षों तक इन्होंने भूमिगत रहकर आजादी की लड़ाई में अपना योगदान दिया. इसी दौरान इनके भाई की मलेरिया से मौत हो गयी. लेकिन आजादी के प्रति इनकी इतनी दीवानगी थी कि भाई की मौत के बाद ये देखने भी नहीं आए और स्वतंत्रता आंदोलन में अपनी भूमिका निभाते रहे. जब 15 अगस्त 1947 को देश आजाद हुआ तो वे वापस दाउदनगर लौटे. युवाओं की टोली ने भारत माता की जयकारा के साथ शहर में भ्रमण किया. दो दिसंबर 1948 को गया के तत्कालीन जिला पदाधिकारी ने इन्हें फरार होने का प्रमाण पत्र दिया, जिसकी अवधि चार वर्ष होती है. बिहार सरकार द्वारा राजनीतिक पीड़ित होने के कारण तीन दिसंबर 1957 को पांच सौ रुपए की राहत राशि प्रदान किया गया. चेक की छाया प्रति आज भी इनके परिजन संभाल कर रखे हुए हैं. आजादी के बाद उन्होंने अपनी पढ़ाई पूरी की. वाराणसी हिंदू विश्वविद्यालय से ग्रेजुएशन किया. भागलपुर यूनिवर्सिटी से टीचर ट्रेनिंग किया. 1957 में प्रखंड शिक्षा निरीक्षक के पद पर पदस्थापित हुए. 1981 में क्षेत्र शिक्षा पदाधिकारी के पद से सेवानिवृत्त हुए. 14 जुलाई 2008 को इनका निधन हो गया.

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