रविकांत पाठक, औरंगाबाद/देव. मगध यानी बोलचाल की भाषा में मगही. इस मगध की धरती को देश में अनोखी पहचान दिलाने वाला मगही पान अब अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहा है. कभी देश के कोने-कोने में मगही पान का निर्यात होता था. लेकिन, आज चंद गांवों में और चंद किसानों के हाथों में ही यह सिमटकर रह गया है. इसके पीछे पलायन के साथ-साथ महंगाई व मेहनत कारण बनी है. यूं कहे कि पलायन के बाद महंगाई से मगध की लाली छिन गयी है.
वैसे मगही पान की खेती औरंगाबाद जिले के देव प्रखंड के दक्षिणी इलाके में बारहगांवा में किया जाता है. वर्षों से इस इलाके की पहचान मगही पान से है. 12 गांव के लोग पूरी तत्परता के साथ पान की खेती करते थे और इसकी सप्लाई औरंगाबाद जिले के साथ-साथ अन्य जिलों व प्रदेशों में करते थे.
देव, केताकी, तेजू बिगहा, खेमचंद बिगहा, भत्तु बिगहा, गिधौर, जोधपुर, एरोरा, खडीहा, पचौखर, कीर्तिपूरम, डुमरी आदि गांवों को मगही पान का हब कहा जाता था. आज भी पान की खेती होती है, लेकिन बड़े पैमाने पर नहीं, बल्कि मामूली तौर पर. सच कहा जाये, तो देश-दुनियां में मगही पान की खेती के लिए मशहूर देव प्रखंड का दक्षिणी इलाका पान की खेती से विमुख होता जा रहा है. पान किसान मेहनत व लागत अधिक तथा आमदनी कम होने के कारण खेती को तेजी से छोड़ रहे है.
कोरोना काल से थमता गया मगही पान की खेती का सफर, अधिकतर किसान किये पलायन
वर्ष 2019 के बाद जब कोरोना का काल शुरू हुआ, तो मगही पान की खेती पर जबर्दस्त असर पड़ा. लगभग दो वर्ष तक पान की खेती की ओर किसी ने नजर भी नहीं घुमाई. कोरोना काल खत्म हुआ, तो महंगाई चरम पर पहुंच गया. ऐसे में अधिकतर लोग खेती को छोड़कर रोजी-रोजगार के लिए दूसरे प्रदेश में पलायन कर गये. जो मगही पान दशकों से पारंपरिक खेती के तौर पर जाना जाता था, वह समाप्ति की ओर है. वाराणसी, कोलकाता, मुंबई, दिल्ली आदि शहरों तक पहचान बनाने वाले मगही पान का निर्यात होना बंद हो गया.
मेहनत का नहीं मिल रहा फल
पान की खेती में किसी भी तरह की आधुनिकता नहीं दिखती है. कृषि में नयी क्रांति व सिंचाई में आधुनिकता के बावजूद किसान पान की खेती को मिट्टी के घड़े से पटवन करते रहे हैं. धनारे और धान पेटारी से बरेव का छजनी करते हैं. इतना ही नहीं, हाड़ तोड़ मेहनत के बाद पान की खेती में लागत अधिक लगती है, पर आमदनी उस अनुपात में नहीं होती है. पान की खेती पर अक्सर झूलसा रोग का साया मंडराता है. इससे किसानों की कमर टूट जाती है. पूरी पूंजी डूब जाती है.
पान के पत्ते पर रोग होने पर उसकी कीमत नहीं रह जाती है. पान की खेती करने वाले ज्यादतर युवाओं की टोली का पलायन हो चुका है. अब यहां के बड़े-बूढ़े ही पान की खेती कर रहे हैं. साथ ही मजदूरों की कमी के कारण वे स्वयं पान की रोपनी करते हैं, पटवन करते हैं और बरेव की छजनी करते हैं. अगर पान की खेती सही हुई, तो किसानों को लाल कर देती है अन्यथा पूरी तरह तबाह कर देती है.
220 पत्ते का 20 से 25 रुपये, बाजार में दो पत्ते का सात रुपया
खेती करने वाले किसान जब बाजार में पान पहुंचाते हैं, तो उन्हें 220 पत्ते का 20 से 25 रुपया मिलता है. लेकिन बाजार में दो पत्ते का मूल्य सात रुपया होता है. ये अलग बात है कि पान दुकानदार पत्तों के साथ मशालों की भरपाई उसी में करता है. वैसे किसानों को एक कट्ठा खेती करने में 50 हजार रुपये खर्च पड़ता है. अगर बीमारी का सामना नहीं हुआ हो, तो 20 से 30 हजार रुपये की आमदनी हो जाती है. हालांकि, पिछले कई वर्षों से किसान नुकसान का सामना कर रहे हैं.
किसानों की व्यथा
10 वर्षों तक पान की खेती कर चुका हूं. खेती के दौरान इतना नुकसान उठाना पड़ा कि घर-परिवार को छोड़कर बाहर निकलना पड़ा. ऐसे ही कितने लोग हैं जो पान की खेती को छोड़कर पलायन कर रहे हैं. सरकारी सुविधा के नाम पर नगण्यता है. बिहार में पान अनुसंधान केंद्र की स्थापना के बाद भी किसानों की हालत में सुधार नहीं हो रहा है. अनवरत पलायन जारी रहा तो मगध क्षेत्र का शान पान का अस्तित्व संकट में पड़ जायेगा.
मनीष चौरसिया
देव क्षेत्र के 12 गांवों के किसानों के जीविकोपार्जन का साधन पान की खेती रहा है. हाड़ तोड़ मेहनत के बाद पान की खेती में लागत अधिक लगती है, पर आमदनी उस अनुपात में नहीं होती है. पान की खेती पर झूलसा रोग लग जाता है, तो किसानों की कमर टूट जाती है. पूरी पूंजी डूब जाती है. महंगाई के इस दौर में आज भी पान की कीमत 10 वर्ष पहले वाली ही है. खेती में किसी तरह की कोई मदद नहीं मिलती है.
युगल किशोर चौरसिया
प्रति वर्ष पान की खेती प्राकृतिक आपदा की चपेट में आकर बर्बाद हो जाती है. पान की खेती में लागत भी काफी आती है. बांस, धनारे, मजदूरी आदि की कीमत अधिक बढ़ गयी है. ऊपर से प्राकृतिक आपदाओं ने किसानों को बर्बाद करने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ा. पाने की खेती में नुकसान अधिक होने के कारण ही कितने लोग पारंपरिक खेती को छोड़ कर दूसरे काम में लग गये है.
सुबोध कुमार चौरसिया, किसान
प्रखंड में बृहद पैमाने पर पान की खेती की जाती है और दर्जनों गांव के किसानों का पान मूल पेशा रहा है. यहां के किसान इसी पान की खेती से परिवार का भरण-पोषण, बच्चों की पढ़ाई, बेटियों की शादी आदि कार्य करते थे. पान कच्चा फसल है. कभी गर्मी में फसल सूख जाता है, तो कभी बरसात में पान का फसल अधिक बारिश के कारण गल जाता है. ठंडी के मौसम में पान के पत्ते सिकुड़न के कारण जल जाते हैं.
माधे प्रसाद चौरसिया
पूर्वजों का यह पैतृक धंधा रहा है और हमलोग इसे करने को मजबूर हैं. इससे हमलोगों को कोई मुनाफा नहीं हैं. प्रत्येक साल कभी गर्मी, बारिश तो कभी ठंड से फसल को नुकसान हो जाता है. फसल का नुकसान होने के बाद मुआवजे के नाम पर सिर्फ खानापूर्ति की जाती है. हमलोग पान के फसल के अलावा कुछ और फसल की खेती नहीं कर सकते हैं. फिर भी मजबूरी में पान की खेती कर रहे है.
चिंता देवी
यहां का पान दिल्ली, चेन्नई, मुंबई तक जाता है. हमारे यहां से पान खरीद कर वाराणसी के व्यवसायी आदि जगहों पर बेचते हैं. यहां के पान की लाली बड़े शहर के लोगों के मुंह तक रहती है. संसाधन के अभाव के कारण खेती सिमटती जा रही है. इसमें कई तरह की बीमारी लग जाती हैं. इससे पान की खेती बर्बाद हो जाती है. सरकार के तरफ से किसी तरह का लाभ किसानों को नहीं मिल पा रहा है. इस वजह से किसान उदासीन हो गये.
उमेश चौरसिया
क्या कहते हैं जानकार
12 गांवों में 10 हजार से अधिक आबादी है. 10 साल पहले तक 80 प्रतिशत लोग पान की खेती पर निर्भर थे. अब 25 प्रतिशत लोग ही पान की खेती कर रहे हैं. पांच हजार से अधिक लोग दिल्ली, हरियाणा, पंजाब, बंगाल आदि प्रदेशों में रोजी-रोजगार के लिए पलायन कर गये हैं. वहीं कुछ लोगों की नौकरी लग गयी है. जैसे-तैसे खेती चल रहा है. सरकारी लाभ नहीं मिल रहा है.
सुरेंद्र चौरसिया, पूर्व प्रमुख, देव