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आजादी का अमृत महोत्सव : मुकुटधारी सिंह ने गांधी जी से सीखा मजदूरों के लिए संघर्ष करना

भारत की आजादी के लिए अपने प्राण और जीवन की आहूति देनेवाले वीर योद्धाओं को याद कर रहे हैं.वीर झारखंड की माटी ऐसे आजादी के सिपाहियों की गवाह रही है. अमृत महोत्सव में प्रभात खबर अपने ऐसे ही वीर स्वतंत्रता सेनानियों को याद कर रहा है़ माटी के सपूतों को प्रभात खबर का नमन.

By Contributor | August 1, 2022 3:27 PM
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आजादी का अमृत उत्सव : हम आजादी का अमृत उत्सव मना रहे हैं. भारत की आजादी के लिए अपने प्राण और जीवन की आहूति देनेवाले वीर योद्धाओं को याद कर रहे हैं. आजादी के ऐसे भी दीवाने थे, जिन्हें देश-दुनिया बहुत नहीं जानती़ वह गुमनाम रहे और आजादी के जुनून के लिए सारा जीवन खपा दिया़ झारखंड की माटी ऐसे आजादी के सिपाहियों की गवाह रही है. अमृत महोत्सव में प्रभात खबर अपने ऐसे ही वीर स्वतंत्रता सेनानियों को याद कर रहा है़ माटी के सपूतों को प्रभात खबर का नमन.

मजदूरों के नेता मुकुटधारी सिंह

प्रदीप कुमार मुकुटधारी सिंह के (नाती) उन्होंने बताया ने बताया की “उनकी मां विमला सिंह (अब स्व) नाना मुकुटधारी सिंह (स्व) की इकलौती बेटी थी. नाना को कई बार सुनने का मौका लगा. उनकी पुस्तकों और उनके बारे में विभिन्न लेखकों के माध्यम से कई जानकारियां मिलीं. आज भी उनसे जुड़ी कई पुस्तकें तथा आजादी के बाद और पूर्व में लिखी गयी कई चिट्ठियां या संदेश मेरे पास हैं. वह मजदूरों के नेता थे. समाजवादी सोच के थे. कई बार उनको महात्मा गांधी का भी सान्निध्य प्राप्त हुआ.”

खदान में घुसने से मना कर दिया था अंग्रेजों ने

आजादी के पूर्व और बाद में भी वर्षों जेल में रहे. स्वतंत्रता संग्राम के दौरान भी मजदूरों के हितों की लड़ाई लड़ते रहे. 1938 में जब वह गांधी जी से अहमदाबाद में मिले थे, तो गांधी जी ने कहा था : मजदूरों को जीने लायक मजदूरी मिलनी चाहिए, ना कि न्यूनतम वेतन. और यदि कोई औद्योगिक संस्थान किसी समय, किसी खास कारण से, घाटे पर भी चलता हो, तो भी जीने लायक मजदूरी देनी ही चाहिए. भले ही उसका भुगतान करने के लिए उक्त औद्योगिक संस्थान के संचित कोष से ही रुपये क्यों न निकालना पड़े. नाना गांधीजी के इस सिद्धांत पर पूरा जीवन लड़ाई लड़ते रहे. नाना का जन्म भले ही बिहार में हुआ था, लेकिन उनका कार्यक्षेत्र हमेशा झारखंड ही रहा. वह धनबाद (झरिया) में मजदूरों की लड़ाई लड़ते रहे. मजदूरों की लड़ाई लड़ते-लड़ते कई बार जेल गये. वहां से युगांतर पत्रिका का प्रकाशन किया. स्वतंत्रता आंदोलन में उनके योगदान के लिए पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने उनको ताम्र पत्र देकर भी सम्मानित किया. कई बार देश के पहले गृह मंत्री ने निजी पत्र लिखा. उनके मजदूर आंदोलन को समझने की कोशिश की. मजदूरों के लिए किये जा रहे कार्यों की सराहना भी की. जयप्रकाश नारायण (जेपी) के साथ वह लंबे समय तक जेलों में रहे. जेपी से उनकी काफी घनिष्ठता थी.

राजेंद्र बाबू ने भेजा था झरिया

नाना ने स्वंतत्रता संग्राम : भूली बिसरी कड़ियां पुस्तक के भाग एक और दो में आंदोलन के दौरान के कई किस्सों का भी जिक्र किया है. दूसरी कड़ी का प्रकाशन उन्होंने 1978 में किया था. नाना बताते थे कि “चूंकि मजदूरों की समस्याओं को लेकर रुचि थी. इसी कारण राजेंद्र बाबू ने तीन माह का प्रशिक्षण लेने के लिए अहमदाबाद भेजा था. वहां से लौटने के बाद पटना पहुंचा. वहां राजेंद्र बाबू से मिला. उनसे पूछा कि अब क्या करना है. राजेंद्र बाबू ने कहा कि तुम धनबाद (झरिया) चले जाओ, वहां कोयला मजदूरों के बीच काम करो. यह कोई वर्ष 1938 की बात होगी. जाने से पहले कहा कि तुम प्रोफेसर अब्दुलबारी से बात कर लेना. वह जमशेदपुर में मजदूरों के बीच काम कर रहे थे. झरिया पहुंचने पर वहां खादी भंडार के मैनेजर बुद्धिनाथ झा के साथ ठहरा. वहां के जूतापट्टी के तीन मंजिले मकान में रहता था. उस वक्त वहां कोई संगठित सक्रिय ट्रेड यूनियन नहीं था. मजदूर नेताओं में प्रतिद्वंद्विता थी. उसी वक्त बर्ड एंड कंपनी की मोदीडीह, बदरुचक और कतरास कोलियरियों में हड़ताल चल रही थी. कंपनी के तत्कालीन चेयरमैन सर एडवर्ड बेंथल द्वितीय विश्वयुद्ध के अवसर पर वायसराय की कार्यकारी समिति के सदस्य भी मनोनीत हुए थे. उस समय मजदूर नेता इमानमुल हई खान मेरे पास आये और कहा कि कुछ देर के लिए छाताबाद चलिए. इससे मजदूरों की हिम्मत बढ़ेगी.”

नो-नो मुकुटधारी

नाना बताते थे कि वर्ष 1938-39 के आसपास बिहार में डॉ श्रीकृष्ण सिंह की सरकार थी. झरिया के एक मामले में बिहार मजदूर जांच कमेटी बनी थी. कमेटी के अध्यक्ष डॉ राजेंद्र प्रसाद, प्रोफेसर राजेंद्र किशोर शरण, प्रो राधाकमल मुखर्जी, जगतनारायण लाल और मालिकों के प्रतिनिधि थे. बर्ड कंपनी के चीफ माइनिंग इंजीनियर एसएफ टार्लटन थे. मेरा मजदूर आंदोलन का व्यावहारिक ज्ञान मात्र तीन-चार माह का ही था. लेकिन छोटी अवधि में झरिया को गंभीरता से समझने की कोशिश की थी. मुझे भी जांच कमेटी के सामने अपनी रिपोर्ट देने की इच्छा थी. जांच कमेटी के सदस्य एक दिन कुस्तौर कोलियरी के बीएनआर चाणक्य पहुंचे थे. वहां मैं भी था. वहां खदान में जाना था. जानेवाले के नाम की रजिस्टर में इंट्री हो रही थी. जब मेरे नाम के इंट्री की बारी आयी, तो भारी विरोध हो गया. कोलियरी का जीएम श्रीमैकरुदर था. मेरा नाम सुनते ही वह चिल्ला उठा. कहा नो-नो मुकुटधारी.. उसे इंट्री नहीं मिलेगी. श्रीमकरुदर का विरोध राजेंद्र बाबू ने भी किया. इसके बावजूद वह तैयार नहीं हुआ. उसी दिन मैंने कमेटी से कहा था कि एक दिन सम्मान के साथ मैं कोलियरी में जाऊंगा. यह घटना उस कोलियरी में 1939 से 1946 के बीच चार बड़े-बड़े आंदोलन के कारण हुई. बाद में एक दिन सम्मानपूर्वक मुझे उस कोलियरी में ले जाया गया.

यार, कहीं राजपूत और सूअर लाठी से मरता है

नाना ने कहा कि एक रात झरिया में घर में सो रहा था उसी समय कुछ लोगों ने लाठी से मारकर अधमरा कर दिया. उ‌स वक्त मौजूद कुछ लोगों ने मुझे ट्रक में लादकर झरिया के अर्जुन बाबू (झरिया के व्यापारी और समाजसेवी) के यहां पहुंचाया. वह मुझे लेकर धनबाद सिविल अस्पताल पहुंचे. वहां के चिकित्सक मेरे मित्र डॉ इमाम ने कहा कि इनका इलाज सकटोरिया के डॉ गोपाल सेन ही कर सकते हैं. डॉ सेन दो बजे रात को तीन घंटे की यात्रा कर इलाज करने आये. बाद में पता चला कि थी डॉ सेन को लाने के लिए अर्जुन बाबू ने उनको ब्लैंक चेक दे दिया था. जिसे डॉ सेन ने लेने से इनकार कर दिया था. धनबाद में प्राथमिक इलाज के बाद ट्रेन से मुझे पटना बेहतर इलाज के लिए लाया जा रहा था. मेरे साथ डॉ इमाम भी थे. मेरे एक मित्र ने डॉ इमाम से मेरा हाल पूछते हुए कहा कि मुकुट बाबू बच जायेंगे ना. तब डॉ इमाम ने कहा था कि – यार कहीं राजपूत और सूअर लाठी से मरता है ? पटना में करीब 20 दिनों के इलाज के बाद मैं ठीक पाया था.

सरदार पटेल ने लिखा था पत्र

श्री सिंह के सोशलिस्ट पार्टी छोड़ने के बाद छोड़ने के बाद देश के पहले गृह मंत्री सरदार पटेल ने इनको पत्र लिखा था. इसमें लिखा था कि सोशलिस्ट पार्टी गलत दिशा में था. इसका पता आपको धीरे-धीरे चला. जयप्रकाश नारायण से काफी घनिष्ठता थी.

मुकुटधारी सिंह कौन थे

मुकुटधारी सिंह का जन्म 1905 में भोजपुर (बिहार) के भदवर में हुआ था. इनके पिता नंद केश्वर सिंह थे. श्री सिंह ने बचपन में ही अपने पिता को खो दिया था. कुल्हड़िया मिडिल स्कूल से पढ़ाई करने के बाद 1930 में पटना कॉलेज से इतिहास में ऑनर्स किया. एमए इतिहास की पढ़ाई छोड़कर गांधीजी के आह्वान पर भारतीय स्वंतत्रता संग्राम में शामिल हो गये. मोतिहारी (चंपारण) में आजादी के पहले आंदोलन में हिस्सा लिया. वहां गिरफ्तार कर जेल भेज दिये गये. गोलमेज सम्मेलन के असफल होने के बाद हुए आंदोलन में 1932 में आरा में गिरफ्तार हुए. छह माह बाद जेल से निकले और भूमिगत आंदोलन में शामिल हो गये. 1930 से 1945 तक मोतिहारी, आरा, पटना सिटी, पटना कैम्प, हजारीबाग और गया जेलों में राजबंदी के रूप में रहे. देवव्रत शास्त्री (अब स्व) के साथ मिलकर नव शक्ति (साप्ताहिक) का प्रकाशन और संचालन किया. दैनिक नवशक्ति, राष्ट्रवाणी और नव राष्ट्र के प्रधान संपादक रहे. 1950 से 1975 तक झरिया से युगांतर (हिंदी साप्ताहिक) के संपादन किया. आपातकालीन के दौरान पत्र-पत्रिकाओं पर लगाये गये कठोर प्रतिबंध और कड़े प्रेस सेंसरशिप के विरोध में सशक्त और ओजस्वी अग्रलेखन के कारण भारत सुरक्षा कानून के तहत गिरफ्तार किया गया. जेपी आंदोलन में भी वह गिरफ्तार किये गये. 14 अप्रैल 1984 में इनका निधन हो गया.

स्वतंत्रता सेनानी मुकुटधारी सिंह की कहानी उनके नाती प्रदीप कुमार की जुबानी. जैसा प्रभात खबर संवाददाता मनोज सिंह को बताया.

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