मोतिहारी. महात्मा गांधी ने भारत को अजादी दिलाने में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी. उनकी ये यात्रा चंपारण से शुरू हुई थी. लेकिन बापू पहले चंपारण नहीं जा रहे थे. उनकी इसमें कोई दिलचस्पी नहीं थी. लेकिन बिहार के वीर, कर्मठी और स्वभाव से राजकुमार शुक्ल की जिद ऐसी थी कि वह गांधी को बिहार ले ही आए. और फिर यही से आजादी तक का सफर तय हुआ.
जब गांधी महात्मा नहीं बने थे और न ही बापू हुए थे. उनकी पहचान एमके गांधी वाली ही थी. 1915 में साउथ अफ्रीका से लौटकर वह जब गुलाम भारत में दिलचस्पी लेने लगे तो उनके पॉलिटिकल गुरु गोपालकृष्ण गोखले ने उन्हें भारत भ्रमण की सलाह दी. उनके ऐसा कहने की दो वजहें थीं, एक तो भारत को लेकर एमके गांधी का सारा ज्ञान किताबी था और दूसरा ये कि वो सवाल बहुत करते थे. गोखले समझते थे कि ये सवाल ही हैं, जो एक दिन गांधी से जरूर कुछ बड़ा करवाकर रहेंगे, लेकिन दूसरी और मोहनदास अभी भी नहीं समझ पा रहे थे कि उनकी राजनीतिक और सामाजिक क्रियाएं आगे कैसे बढ़ेगी.
आज के महात्मा गांधी के बारे में बात करते हुए जो पॉस लेने वाली जगह है, यह वही है. जैसे गंगा की गंगोत्री का एक सोता है, जैसे हिमालय की शुरुआत का एक सिरा है और जैसे भारत का आखिरी छोर इंदिरा पॉइंट है, ठीक वैसे ही गांधी से बापू और फिर महात्मा बनने के सफर का पहला स्टेशन ही चंपारण है. चंपारण ये बिहार का एक जिला जो न होता तो आज गांधी राष्ट्रपिता न होते. और ये श्रेय चंपारण से भी अधिक अगर किसी शख्स को जाता है तो वे थे राजकुमार शुक्ल.
राजकुमार शुक्ल एक किसान, कुछ कम पढ़े-लिखे, सामाजिक लोगों में भी बहुत उठ-बैठ उनकी नहीं थी, लेकिन उस समय शुक्ल बहुत दुखी थे. वैसे राजकुमार शुक्ल को आज भुलाया नहीं गया है, लेकिन जैसे याद रखा है तो वो भी क्या ही याद रखना हुआ. 2 अक्टूबर को गांधी जयंती है, लेकिन कम से कम आज बिहार और चंपारण को इतना तो करना ही चाहिए कि वे राजकुमार शुक्ल की याद दोहरा लें.
ये साल 1916 था और दिसंबर की सर्दी में एमके गांधी लखनऊ पहुंचे हुए थे. कांग्रेस का अधिवेशन था. एक बाभन आदमी, सर्वसाधारण भेष-बाना लिए यहां पहुंचा. एमके गांधी अफ्रीका वाली क्रांतियों के कारण पहचान तो रखते ही थे, लिहाजा राजकुमार शुक्ल ने उनसे चंपारण किसानों का सारा दुख कह डाला और ब्रिटानी हुकूमत की जुल्मी दास्तान सुनाई. किसानों पर तीनकठिया कानून लागू था. यानी किसानों को अपनी जमीन के तीन कट्ठे पर नील की खेती करनी ही होगी.
एमके गांधी बहुत देर तक ये सब सुनते रहे, लेकिन उन्हें शुक्ल की बात में कोई असर नहीं दिख रहा था. राजकुमार शुक्ल ने भी कतई हार नहीं मानी और बार-बार उनसे मिलकर गांधी जी को चंपारण ले ही आए. अपनी आत्मकथा ‘सत्य के प्रयोग’ में गांधी खुद लिखते हैं कि ‘लखनऊ जाने से पहले तक मैं चंपारण का नाम तक न जानता था. नील की खेती होती है, इसका तो ख्याल भी न के बराबर था. इसके कारण हजारों किसानों को कष्ट भोगना पड़ता है, इसकी भी मुझे कोई जानकारी न थी. राजकुमार शुक्ल नाम के चंपारण के एक किसान ने वहां मेरा पीछा पकड़ा. वकील बाबू (ब्रजकिशोर प्रसाद, बिहार के उस समय के नामी वकील और जयप्रकाश नारायण के ससुर) आपको सब हाल बताएंगे, कहकर वे मेरा पीछा करते जाते और मुझे अपने यहां आने का निमंत्रण देते जाते.’ पुस्तक में नील के दाग वाले अध्याय में महात्मा का ये इकबालिया बयान दर्ज है.
1917 में गांधी आए. उन्होंने सत्याग्रह और अहिंसा के अपने आजमाए हुए अस्र का भारत में पहला प्रयोग चंपारण की धरती पर किया. एक ही कपड़ा ओढ़ने-लपेटने की कसम खाई और इसी आंदोलन के बाद वे ‘महात्मा’ कहलाए. एक तरीके से कहा जाए कि जिस आंदोलन से देश को नया नेता और नई तरह की राजनीति मिलने का भरोसा पैदा हुआ उसकी देन बिहार वीर राजकुमार शुक्ल ही थे. 23 अगस्त 1875 को बिहार के पश्चिमी चंपारण में राजकुमार शुक्ल का जन्म हुआ था.
चंपारण बिहार में जहां स्थित है वहां इसकी सीमाएं नेपाल से सटी हुई हैं. यहां पर उस समय अंग्रेजों ने व्यवस्था कर रखी थी कि हर बीघे में तीन कट्ठे जमीन पर नील की खेती करनी ही होगी. बंगाल के अलावा यही वो जगह थी, जहां नील की खेती होती थी. इसके किसानों को इस बेवजह की मेहनत के बदले में कुछ भी नहीं मिलता था. उन पर कई दर्जन अलग-अलग कर भी लगे हुए थे, राजकुमार शुक्ल ने इसके लिए लड़ाई छेड़ दी. उन्होंने इस शोषण का पुरजोर विरोध किया. कई बार अंग्रेजों के कोड़े और प्रताड़ना का शिकार भी हुए, लेकिन समस्या यह हुई कि अपने आंदोलन के साथ वह लोगों को नहीं जोड़ पा रहे थे. किसान एक-दो दिन एकजुट होते थे, लेकिन अंग्रेजों की दमन नीति के आगे झुक जाते थे. गांधी जी ने आकर लोगों को एकजुट किया और सत्याग्रह का नतीजा हुआ कि 135 सालों से दासता का शिकार चंपारण मुक्त हो गया.
अब इसके आगे दुखद ये है कि राजकुमार शुक्ल को भारतीय इतिहास में वो जगह नहीं मिल सकी, जिसके वे हकदार थे. 20 मई 1929 को बिहार के मोतिहारी में उनकी मृत्यु हो गई और इसके बाद वे भुला दिए गए. हालांकि राजकुमार शुक्ल पर भारत सरकार ने दो स्मारक डाक टिकट भी प्रकाशित किए हैं. लेकिन आजादी के रणबांकुरों में वो याद भी आते हैं या नहीं. कहना मुश्किल है.