प्रशासन के बड़े बोल, हकीकत सिफर

योजना पर ठेकेदारों और मशीनों का दबदबा कायम काम के अभाव में बेकार पड़े हैं मजदूरों के हाथ मजबूरी में कम दिहाड़ी पर काम करने को विवश हैं श्रमिक योजना की सफलता के दावें के बीच तेज हुआ मजदूरों का पलायन बांका : मनरेगा अंतर्गत बांका जिले में अब तक 32 हजार 805 परिवारों को […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | January 29, 2016 4:02 AM

योजना पर ठेकेदारों और मशीनों का दबदबा कायम

काम के अभाव में बेकार पड़े हैं मजदूरों के हाथ
मजबूरी में कम दिहाड़ी पर काम करने को विवश हैं श्रमिक
योजना की सफलता के दावें के बीच तेज हुआ मजदूरों का पलायन
बांका : मनरेगा अंतर्गत बांका जिले में अब तक 32 हजार 805 परिवारों को रोजगार मुहैया कराया गया हैं. चालू वित्तीय वर्ष के बीते 10 महीनों के दौरान जिले में इस योजना के अंतर्गत कुल 1 करोड़ 36 लाख 86 हजार 78 मानव दिवस सृजित किये गये है. इनमें अनुसूचित जाति परिवारों के लिए 2 लाख 43 हजार 832 एवं अनुसूचित जन जाति परिवारों के लिए 80 हजार 406 सृजित मानव दिवस शामिल हैं. महिलाओं के लिए भी कुल 5 लाख 68 हजार 29 मानव दिवसों का सृजन किया गया.
ये दावे जिला प्रशासन के हैं. सच तो ये है कि बांका जिले में महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना का एक बड़ा हिस्सा कुछ बड़े ठेकेदारों के हाथों का खिलौना बन कर रह गयी हैं. इस योजना में तकनीकी उपकरणों का जमकर प्रयोग हो रहा हैं. लिहाजा मानव दिवस सृजित करने की बात व्यावहारिक तौर पर कागजी बन कर रह गया हैं. इस योजना में आम तौर पर मिट्टी के कार्य होते हैं. डांड़, बांध, नाला, आहर, पैन, छिटका, सड़क आदि इस योजना से बनाये जाने है.
सारे काम स्थानीय मजदूरों द्वारा हाथ से होने है. इसके पीछे तर्क यह है कि स्थानीय स्तर पर मजदूरों को काम मिलें ताकि रोजगार के लिए उन्हें पलायन ना करना पड़े. लेकिन ऐसे अनेक मामले सामने आये है जहां पोखर की खुदाई से लेकर नाले की सफाई और सड़कों पर मिट्टी भराई के ज्यादातर कामों में मानव श्रम की जगह सीधे पोकलेन लगाकर आनन- फानन में काम पूरा कराया जाता हैं. कई बार मामले अधिकारियों के भी संज्ञान में आये लेकिन नतीजा सिफर रहा.
मजदूर आज भी पलायन कर रहे है. योजना की सफलता फाइलों की औपचारिकता बन कर रह गयी है. अपने ही इलाके में मशीनों से इस योजना का काम होते देख मजदूर मसोस कर रह जाते हैं. उन्हें काम नहीं मिलता और योजनाएं फाइलों में पूरी हो जाती हैं. लिहाजा काम की तलाश में उन्हें पलायन करना ही पड़ता है. वे नहीं जानते की योजना की नियमावली और इनके व्यावहारिक क्रियान्वयन को लेकर अधिकारियों, बिचौलियों और ठेकेदारों के बीच क्या खिचड़ी पकती हैं. उन्हें तो बस काम की तलाश रहती है जो उन्हें नहीं मिल पाता और वे पलायन को अपनी नियति मान लेते हैं.

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