300 वर्षों से होती आ रही है गोड़धुआ दुर्गा मंदिर में पूजा-अर्चना, दूर-दूर तक फैली है मंदिर की ख्याति
शारदीय नवरात्र को लेकर क्षेत्र का वातावरण भक्तिमय हो गया है. जगह-जगह मां दुर्गा की पूजा-अर्चना को लेकर बड़ी-बड़ी तैयारी की गयी है. वहीं प्रसिद्ध गोड़धुआ दुर्गा मंदिर के दरबार में भी श्रद्धालुओं का आना शुरू हो गया है.
अजय कुमार झा, बाराहाट. शारदीय नवरात्र को लेकर क्षेत्र का वातावरण भक्तिमय हो गया है. जगह-जगह मां दुर्गा की पूजा-अर्चना को लेकर बड़ी-बड़ी तैयारी की गयी है. वहीं प्रसिद्ध गोड़धुआ दुर्गा मंदिर के दरबार में भी श्रद्धालुओं का आना शुरू हो गया है. लोगों की इस मंदिर में आस्था का आलम यह है कि यहां जो कोई भी अपनी मनोकामना के साथ आते हैं कोई खाली हाथ नहीं जाता है. उनकी मनोकामना पूरी होकर ही रहती है. कई इतिहासकार बताते हैं कि इस मंदिर में पूजा-अर्चना के साक्ष्य तकरीबन 300 साल पुराना है. यहां पर प्रत्येक वर्ष हजारों की संख्या में श्रद्धालु दुर्गा पूजा के मौके पर पहुंचते हैं और अपनी मन्नत पूरी होने पर चढ़ावा चढ़ाते हैं. बताया जाता है कि यहां पूजा की शुरुआत लक्ष्मीपुर स्टेट के महाराजा चंद्रदेव नारायण जी के द्वारा हुआ था. कुछ जानकार लोग बताते हैं कि दुर्गा पूजा के दौरान ही महाराज के परिवार में कुछ अनिष्ट होने पर उन्होंने गुस्से में आकर मां की प्रतिमा को चांदन नदी की तेज धार में विसर्जित करवा दिया था और बीच में ही पूजा रोक दी गयी थी. कहा जाता है कि इस रात मां ने गोड़धुआ गांव के एक दलित परिवार के पुरुष सदस्य को स्वप्न दिया और उसे आदेश दिया कि वह नदी की तेज धार में गांव के समीप पड़ी हुई है. वह वहां पहुंचे और उसे बाहर निकाल कर उसकी पूजा-अर्चना करें. जिससे कि क्षेत्र में सुख, शांति और समृद्धि आयेगी. सुबह उठकर वह परिवार मां के बताये जगह पर पहुंचा और वहां पर दुर्गा मां की प्रतिमा को देखा, जिसे ग्रामीणों ने मिलकर ठीक किया और उसकी पूजा-अर्चना शुरू की. तभी से गांव में मां दुर्गा के पूजा-अर्चना की शुरुआत हुई. इसके बाद तकरीबन 1950 में बलदेव सिंह के प्रयास से यहां पर भव्य मंदिर का निर्माण कराया गया. ग्रामीण एक किस्सा बताते हैं कि आज भी जब मां की प्रतिमा को विसर्जन करने का समय होता है तो उस दलित परिवार के सदस्य जब तक मां दुर्गा के मेढ़ में हाथ नहीं लगाते हैं तब तक मां की प्रतिमा को उठाया नहीं जाता है.
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