मिथिलांचल की तीर्थनगरी सिमरियाधाम में भगवत भजन में लीन हुए श्रद्धालु

मिथिलांचल की तीर्थनगरी सिमरियाधाम में हर वर्ष कार्तिक के महीने में कल्पवास मेले का आयोजन किया जाता है. सिमरिया में हर साल आश्विन पूर्णिमा से मिथिला-मगध के संगम तट पर श्रद्धालु एक महीने का कल्पवास करते हैं.

By Prabhat Khabar News Desk | October 21, 2024 10:33 PM
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बीहट.

मिथिलांचल की तीर्थनगरी सिमरियाधाम में हर वर्ष कार्तिक के महीने में कल्पवास मेले का आयोजन किया जाता है. सिमरिया में हर साल आश्विन पूर्णिमा से मिथिला-मगध के संगम तट पर श्रद्धालु एक महीने का कल्पवास करते हैं. यह पर्व आश्विन माह की पूर्णिमा के दिन पहले स्नान से प्रारंभ होता है. कल्पवास की परंपरा सदियों से चली आ रही है. हिंदू धर्म में कल्पवास का बहुत महत्व है.

कार्तिक माह और कल्पवास का महत्व :

एक महीने संगम के तट पर रहते हुए वेदाध्यान और पूजा-अर्चना करना इनकी दिनचर्या में शामिल रहता है. सिमरिया में 17 अक्तूबर से कल्पवास मेला शुरू हो गया है. ऐसी मान्यता है कि तुला राशि में सूर्य के प्रवेश करने के साथ ही कार्तिक मास में कल्पवास के शुभ मुहुर्त का आरंभ होता है. शास्त्रों में कल्प का अर्थ ब्रह्मा जी का दिन बताया गया है. कल्पवास का महत्व रामचरितमानस और महाभारत जैसे धार्मिक ग्रथों मे भी मिलता है. सर्वमंगला के अधिष्ठाता स्वामी चिदात्मन जी महाराज कहते हैं कि चैत्र माह से नये साल का आरंभ होता है. ऐसे में आठवां माह काार्तिक माह माना जाता है. इस महीने को काफी शुभ माना जाता है, क्योंकि इस माह जहां देवउठनी एकादशी पड़ती है. जिसके साथ ही भगवान विष्णु योग निद्रा से जाग जायेंगे. इसके साथ ही मांगलिक काम एक बार फिर से आरंभ हो जायेंगे. इसके साथ ही इस माह दिवाली, धनतेरस, नरक चतुर्दशी, करवा चौथ जैसे व्रत त्योहार भी पड़ रहे हैं. इसके साथ ही इस माह भगवान विष्णु के साथ तुलसी पूजा करने से विशेष फलों की प्राप्ति होती है.

कल्पवास कैसे होता है :

कल्पवास के लिए सिमरिया के संगम के तट पर श्रद्धालु डेरा डालकर कुछ विशेष नियम धर्म के साथ पूरे महीने को व्यतीत करते हैं. कुछ लोग कल्पवास मकर संक्रांति से भी आरंभ करते हैं. मान्यताओं की मानें तो कल्पवास के जरिए मनुष्य अपना आध्यात्मिक विकास करना चाहता है. कल्पवास करने वाले को इच्छानुसार फल के साथ जन्म जन्मांतर के बंधनों से मुक्ति मिलती है. महाभारत के अनुसार सौ साल तक बिना अन्न ग्रहण किए तपस्या करने के बराबर पुण्य कार्तिक मेले में कल्पवास करने से ही प्राप्त हो जाता है. कल्पवास के दौरान बाहरी दुनिया की चमक धमक से बिल्कुल दूर रहकर भगवत भजन में तल्लीन रहते हैं.

कल्पवास के नियम :

कल्पवास का महत्व कुंभ मेले के समय और भी अधिक हो जाता है. इसका जिक्र हमें अपने वेदों और पुराणों में मिलता है. कल्पवास कोई आसान प्रकिया नहीं है. जाहिर है कि मोक्ष कोई आसान विधि की साधना तो नही सकता. कल्पवास के दौरान कल्पवासी को अपने आप पर पूरा नियंत्रण रखना चाहिए. पद्म पुराण में कल्पवास के नियमों को बारे में विस्तार से चर्चा की गयी है. जिसके अनुसार कल्पवास करने वाले व्यक्ति को 21 नियमों का पालन करना चाहिए. जिसमें पहला नियम सत्यवचन, दूसरा इंद्रियों पर नियंत्रण, तीसरा अहिंसा चौथा ब्रहमचर्य का पालन करना चाहिए पांचवां सभी जीवों पर दयाभाव, छठा ब्रह्म मुहुर्त में जगना, नित्य पवित्र गंगा स्नान करना, व्यसनों का त्याग, पिंतरों का पिण्डदान, अंतर्मुखी जप, सत्संग, सन्यासियों की सेवा,एक समय का भोजन करना, जमीन पर सोना, देव पूजन, संकल्पित क्षेत्र से बाहर न जाना और कल्पवास के दौरान किसी की निंदा ना करना. इन सभी में सबसे ज्यादा महत्व ब्रह्मचर्य, सत्संग देव पूजन, उपवास और दान को माना गया है. मान्यता है कि कार्तिक मेले में स्नान करने से दस हजार अश्वमेघ यज्ञ के बराबर पुण्य मिलता है. ऐसी मान्यता है कि कल्पवास का पालन करने से अत:करण और शरीर दोनों का कायाकल्प होता है. कल्पवास के पहले दिन तुलसी और भगवान शालिग्राम की स्थापना के साथ पूजन की जाती है और कल्पवास के दौरान जौ रोपा जाता है. जब कल्पवास की अवधि पूरी हो जाती है,तो रोपे हुए जौ को साथ लेकर चले जाते हैं, जबकि तुलसी जी को गंगा में प्रवाहित कर देते हैं. ऐसी मान्यता है कि जो एक महीने कल्पवास कर लेता है, उसके लिए स्वर्ग में एक स्थान सुरक्षित हो जाता है. एक मान्यता ये भी है कि जो व्यक्ति कल्पवास की प्रतिज्ञा करता है वह अगले जन्म में राजा के रूप में जन्म लेता है.

समय के साथ बदला मेला का स्वरूप :

समय बदला, मेला का स्वरूप बदला, सुविधाएं बदली तो कल्पवास मेला का व्यवसायीकरण भी हुआ. यूं तो सैकड़ों वर्षों से सिमरिया घाट पर हर कार्तिक मास में कल्पवास मेला की परंपरा है. श्रद्धा और भक्ति के साथ हजारों श्रद्धालु सिमरिया पहुंच गंगा के किनारे पर्ण कुटी बनाकर गंगा माता की आराधना में एक महीने तक एक विशेष दिनचर्या के तहत भक्ति भाव में लीन रहते हैं. इस दौरान कल्पवासियों के बीच कोई भेदभाव नहीं रहता और न कोई अमीर-गरीब होता है. लेकिन हाल के कुछ वर्षों में इस परंपरा में भी भेदभाव दिखने लगा है. आप के पास पैसे हैं तो सारी सुविधाएं आपको मिलेगी और यदि नहीं तो शायद ही कोई आपकी मदद करने वाला मिले. यूं कहें तो श्रद्धा कहीं न कहीं पीछे छूटती जा रही है और मेला में अर्थ हावी होता जा रहा है.

बाजारवाद हावी है कल्पवास मेला में :

मेला में दो तरह के विकल्प कल्पवासियों के सामने उपलब्ध होते हैं. टेंट से बनी पर्णकुटी हवादार, बड़ा और अच्छी सुविधा वाली पर्णकुटी की श्रेणी में आती है.।इसमें महंत लोगों की अहम भूमिका होती है. यहां श्रद्धालुओं को तीन से पांच हजार महीना तक किराया के रूप में खर्च करना पड़ता है. जिनके पास टेंट वाली पर्णकुटी का किराया देने की क्षमता नहीं है उन्हें खुद से पाॅलीथीन से अपनी पर्णकुटिया बनानी पड़ती है. सुविधा संपन्न टेंटों में गैस चुल्हा पर खाना पकता है, वहीं आर्थिक रूप से कमजोर लोगों की कुटियाओं में मिट्टी के बने चुल्हे और लकड़ी पर खाना बनता है. मंहगें दर पर लकड़ियां खरीदना ऐसे लोगों के सामने परेशानी का सबब है .जिला प्रशासन द्वारा इस मद में कोई मदद अथवा सुविधा मुहैय्या नहीं करती जिसके कारण ऐसे लोगों की परेशानी बढ़ जाती है.

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