मां ने समझाया, बेटा! छोड़ि दे पहलवानी

भागलपुर: तब वह 16-17 वर्षीय नवयुवक था. गरीबी तंगहाली के कारण घर के कामों में उलझ कर रह गया. भैंस चराने व घर की देखभाल में पढ़ाई छूट गयी, दंगल से ‘फोटो पहलवान’ का लगाव कम न हुआ. कलाजांघ, एकटंगा, ढाक आदि..दंगल के दावं-पेच समझते उम्र बढ़ती चली गयी, अनुभव भी बढ़ता गया. कुश्ती के […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | February 11, 2015 9:10 AM
भागलपुर: तब वह 16-17 वर्षीय नवयुवक था. गरीबी तंगहाली के कारण घर के कामों में उलझ कर रह गया. भैंस चराने व घर की देखभाल में पढ़ाई छूट गयी, दंगल से ‘फोटो पहलवान’ का लगाव कम न हुआ.

कलाजांघ, एकटंगा, ढाक आदि..दंगल के दावं-पेच समझते उम्र बढ़ती चली गयी, अनुभव भी बढ़ता गया. कुश्ती के प्रति समर्पण और बदले में बिना किसी उम्मीद के वह छोटे-बड़े दंगल आयोजनों में भाग लेता रहा. जहां गया, वहां बाजी मारी.

कटिहार, समस्तीपुर, कोसी, जमुई के साथ बनारस व दिल्ली के भी पहलवानों को पटखनी दी. पहलवानी फोटो के खून में ही थी. दादा रामेश्वर यादव पहलवान थे. पिता वासुदेव यादव का भी दंगल में कोई सानी नहीं था. गांव में दर्जन भर पहलवान थे, हासिल तो कुछ होना नहीं था, सो धीरे-धीरे सभी ने कुश्ती से कदम पीछे खींच लिया. लेकिन गांव के उस्ताद कहे जाने वाले फोटो आज भी पहलवान तैयार कर रहे हैं.

रो पड़ती है, फोटो की मां : कि बतैयो बेटा! हरदम मना करलियै नै लड़ैं कुश्ती. मरि जैंभे त, कोय काम नै देतै. घर के आंगन में बैठी फोटो की मां बदामा देवी इतना कहते हुए रो पड़ती है. बेटे की पहलवानी और खेल में उठा-पटक की चर्चा मात्र से वह सिहर उठती है. मिट्टी-कंकड़ के ढेर पर पटका-पटकी से जान गंवा देने का डर बना रहता है. फोटो बताते हैं कि मां ने हमेशा से उन्हें कुश्ती खेलने से मना किया. यह पूछने पर कि कुश्ती से कुछ हासिल नहीं होते हुए भी वह क्यों अब भी दंगल के पीछे भागता रहता है, फोटो बताते हैं कि गांव गोसाईंदासपुर पहलवानों की फैक्ट्री के नाम पर भी जाना जाता रहा है. ऐसे में कुश्ती को परंपरा को जीवित रखना बहुत जरूरी है. कुश्ती के प्रति समर्पण में फोटो को कभी कोई अपेक्षा नहीं रही, लेकिन जब जिम्मेदारी का बोध हुआ, तब उसे लगने लगा कि पहलवानी के भरोसे घर-परिवार नहीं चल सकता. जीवन के 30 वसंत पार कर चुके फोटो पहलवान को पहरेदार, गार्ड जैसी किसी एक नौकरी की जरूरत महसूस हो रही है.

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