बदलते जलवायु के साथ खेती पद्धतियों को भी बदलें

सबौर : बिहार कृषि विश्वविद्यालय, सबौर में तीन दिवसीय जलवायु परिवर्तन एवं कृषि उत्पादन विषय पर राष्ट्रीय सम्मेलन का आयोजन चल रहा है. उसी कड़ी में शुक्रवार को राष्ट्रीय सम्मलेन के दूसरे दिन जलवायु परिवर्तन एवं कृषि जलवायु अनिश्चितता कुप्रभाव एवं अनुकूलन क्रॉप समुलेशन मॉडलिंग, रिमोट सेंसिंग, प्राकृतिक संसाधन प्रबंधन सूचना एवं संचार तकनीकी का […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | April 8, 2017 8:24 AM
सबौर : बिहार कृषि विश्वविद्यालय, सबौर में तीन दिवसीय जलवायु परिवर्तन एवं कृषि उत्पादन विषय पर राष्ट्रीय सम्मेलन का आयोजन चल रहा है. उसी कड़ी में शुक्रवार को राष्ट्रीय सम्मलेन के दूसरे दिन जलवायु परिवर्तन एवं कृषि जलवायु अनिश्चितता कुप्रभाव एवं अनुकूलन क्रॉप समुलेशन मॉडलिंग, रिमोट सेंसिंग, प्राकृतिक संसाधन प्रबंधन सूचना एवं संचार तकनीकी का क्लाइमेट स्मार्ट कृषि में उपयोग इत्यादि विषयों में देश के विभिन्न संस्थानों से आये 120 वैज्ञानिकों ने शोध पत्र प्रस्तुत किये और उस पर परिचर्चा हुई.
सेमिनार में विमर्श : धान की सीधी बुआई की जाये तो यह ग्रीन हाउस गैसों मुख्यत: मिथेन गैस के उत्सर्जन को लगभग 62 प्रतिशत कम करता है. इस पद्धति से ग्लोबल वार्मिंग के प्रभाव को रोका जा सकता है. राइजोबियम की स्ट्रेन मूंग में उपयोग करने से सूखा जैसी स्थिति में अधिक पैदावार हो सकती है. जलवायु परिवर्तन जैसी स्थिति में रिमोट सेंसिंग तकनीकी से प्राकृतिक संसाधनों के बारे में पता करने के बारे में जानकारी दी गयी है. रिमोट सेंसिंग से यह पता चला है कि गंगा जैसी नदियां अपना बहाव का रास्ता परिवर्तित कर रही है. यह भी पाया गया की यदि गंदे जल को शुद्ध कर खेती में उपयोग किया जाय तो 6–7 प्रतिशत उत्पादन बढ़ सकता है.
मधुमक्खी पालन से परागण प्रक्रिया तेज होती है व उत्पादकता भी फसलों की बढ़ जाती है. डाॅ विशाल नाथ ने अपने प्रजेंटेशन के दौरान कहा कि बदलते जलवायु परिवर्तन में बागवानी को बढ़ावा देने की आवश्यकता है. डाॅ एल दास ने कहा की जलवायु परिवर्तन से उत्तर बंगाल में 01–05 प्रतिशत वर्षा कम होने की संभावना है. दक्षिणी बंगाल में 17–24 प्रतिशत वर्षा 21वीं सदी के अंत तक कम होने की आशंका है. कुल मिला कर यह निष्कर्ष सामने आया कि बदलते जलवायु परिवर्तन में किसानों को खेती पद्धतियों को बदलने एवं नवीनतम तकनीकी जैसे की बुआई के समय में परिवर्तन, साइट स्पेसिफिक न्यूट्रिएण्ट मैनेजमेंट, संरक्षित खेती इत्यादि अपनाने की आवश्यकता है.

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