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50 साल से बंद पड़े रंगी कारखाना जिर्णोद्धार व तकनीक विस्तार हो तो रंगरेजों की जिंदगी में भर सकता है रंग

लॉकडाउन में बेरोजगार भटक रहे हैं और सिल्क कपड़ा रंगकर्मियों को रोजगार की बड़ी चिंता सताने लगी है. ऐसे में उन्हें चंपानगर में पचास साल से बंद पड़े रंगी कारखाने में रोजगार नजर आ रहा है. रंगरेजों का मांग है कि रंगी कारखाने का फिर से जिर्णोद्धार हो और उसमें कपड़ा रंगाई का नये तकनीक लाया जाए तो बुनकरों, मजदूरों व कपड़ा व्यवसायियों का कायाकल्प हो सकता है. कारखाना फिर से बनने से करीब दो हजार मजदूरों को रोजगार मिल सकता है.

नाथनगर : लॉकडाउन में बेरोजगार भटक रहे हैं और सिल्क कपड़ा रंगकर्मियों को रोजगार की बड़ी चिंता सताने लगी है. ऐसे में उन्हें चंपानगर में पचास साल से बंद पड़े रंगी कारखाने में रोजगार नजर आ रहा है. रंगरेजों का मांग है कि रंगी कारखाने का फिर से जिर्णोद्धार हो और उसमें कपड़ा रंगाई का नये तकनीक लाया जाए तो बुनकरों, मजदूरों व कपड़ा व्यवसायियों का कायाकल्प हो सकता है. कारखाना फिर से बनने से करीब दो हजार मजदूरों को रोजगार मिल सकता है.

वर्तमान में बुनकर मजदूर सड़क पर हैं. उन्हें घर परिवार चलाने की चिंता सता रही है. खंडहर बनकर ढह चुके कारखाने को फिर से खोलने का बड़ा मांग रख रहे हैं. कपड़े की सुधर जाएगी क्वालिटी, मिलेगा बाजारकारोबारी मो हसनैन अंसारी बताते हैं कि रंगी कारखाना व बुनकर को-ऑपरेटिव आज से पचास चाल पहले जिस तरह खुला था, अगर फिर से खुले तो बुनकरों की किस्मत में चार चांद लग सकता है.

गुजरात, मुंबई, बनारस में जिस तरह कपड़ा रंगाई की नयी तकनीकी मशीन लगी है, वह मशीन यहां भी लग जाए, तो कपड़े के रंग की क्वाॅलिटी भी बेहतर होगी. बिना मशीन के कुछ कलर छूटने की शिकायत आती है, तो यह दूर हो जाएगी. सस्ते दर मेंं व्यापारी अच्छा रंग कराबा पाएंगे. अभी की तरह माल बेचने के लिए भटकना नहीं पड़ेगा. इससे सरकार को भी राजस्व आयेगा. इलाके में चार प़ांच कारखाना खुलने से कमसे कम दो से तीन हजार रंगकर्मी बुनकरों को रोजगार मिल पाएगा.

सस्ते दर में कराते थे बेहतर रंग, मजदूरों को भी मिलता था काम, तकनीक चुराकर ठप कर दिया हसनैन बताते हैं कि आज से 70 साल पहले रंग का कोई अच्छी टेक्नोलॉजी नहीं थी. ऐसे में रंगी कारखाने खुला तो उसमें तब नयी तकनीक आयी. उसमें इंजीनियर, मैनेजर आदि डिप्युट थे, जो रंग करने का प्रशिक्षण देते थे. रंगकर्मियों को रोजगार मिला. निजी व्यापारी को-ऑपरेटिव से धागा खरीदकर बाजार से आधे दर में यहां रंग कराते थे. इसके अलावा बुनकर को-ऑपरेटिव भी धागा देकर रंग कराता था और रंगकर्मी को मजदूरी देता था. वहां रंग अच्छी क्वाॅलिटी का एंवं सब्सिडी में मिलती थी. मगर जब रंगकर्मी तब के नये तकनीक से प्रशिक्षित हो गये, तो वहां से भागकर निजी व्यवसाय खोल लिए. वो सरकार के दर से भी आधे दाम में करने लगे. व्यापारी उनके पास ही काम देने लगे. ऐसे मे धीरे-धीरे कारखाना बंद हो गया, जो आज खंडहर बन गया है.

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