जिस भाषा में बात की जाये वही साहित्य है, इस क्षेत्र में काम करने वाले स्वतंत्र हैं : कविगुरु टैगोर
मानिक सरकार चौक के पास 1834 में स्थापित भागलपुर इंस्टीट्यूट के प्रांगण में तीन दिवसीय बंगीय साहित्य सम्मेलन का तृतीय अधिवेशन सरस्वती पूजा के दिन 13 से 15 फरवरी 1910 इस्वी को आयोजित हुआ था.
भागलपुर : मानिक सरकार चौक के पास 1834 में स्थापित भागलपुर इंस्टीट्यूट के प्रांगण में तीन दिवसीय बंगीय साहित्य सम्मेलन का तृतीय अधिवेशन सरस्वती पूजा के दिन 13 से 15 फरवरी 1910 इस्वी को आयोजित हुआ था. इतिहासकार व टीएमबीयू के प्रो रमण सिन्हा ने बताया कि मैंने बांग्लाभाषा की पुस्तक प्रसंग : भागलपुर में 1910 में हुए बंगीय साहित्य सम्मेलन में कविगुरु टैगोर के अभिभाषण का बांग्ला से हिंदी भाषा में अनुवाद किया है. उन्होंने कहा था कि इस विशाल सभा में बोलने का आदेश दिया गया, मैं वक्ता नहीं हूं, मैं अपने संबोधन से श्रोताओं को झंकृत नहीं कर सकता.
सभा में एक से बढ़कर विद्वान वक्ता हैं, जो अपने वक्तव्यों से मुझ सहित सबों को झंकृत कर चुके हैं. इसलिए मुझे यह पूछने का अधिकार है कि न्याय दिलाने वाले विचारवान विचारपति ने मुझे बुलाकर मेरे साथ गैर न्यायिक कदम कैसे उठाया. मेरी कमजोर काया देखकर भी दया नहीं आयी. मैं आपकी लाज रखने में समर्थ नहीं हो पाऊंगा, इसलिए मेरी अक्षमता में आप सब भागीदार होंगे. आदेश का पालन करना मेरा धर्म है. कविगुरु ने कहा कि बंगीय साहित्य का प्रथम अधिवेशन बहरामपुर, द्वितीय राजशाही वर्तमान बंगलादेश में हुए. भागलपुर का यह तीसरा अधिवेशन अद्वितीय एवं अदभुत है. तीन दिनों में मैंने देखा एवं सुना भी कि बिहारियों के सहयोग से ही भव्य, विशाल एवं शिष्टाचार युक्त सफल कार्यक्रम हुआ. उन्होंने कहा कि सामूहिक प्रयास का ही प्रतिफल है कि यह अधिवेशन सृजनात्मकता का राष्ट्रीय अधिवेशन प्रमाणित हो गया.
उन्होंने आगे कहा कि व्यक्तिगत कोशिश से बंगला के बहुत सारे अनुष्ठानों का उदभव हुआ जो सफल नहीं रहा. लेकिन यह कार्यक्रम जिस सहज एवं स्वाभाविक भाव से संपूर्णता की ओर अग्रसर हुआ वह सामूहिक प्रयास का ही प्रतिफल है. विविधता में एकता वाले भारत की मिट्टी में ही सामूहिक सृजन की प्रकृति निहित है. सामूहिक सृजनात्मकता हमेशा उत्कर्ष करता है. आप भागलपुरवासियों का यह विशाल राष्ट्रीय कार्यक्रम एक व्यक्ति या संप्रदाय विशेष का अनुष्ठान नहीं वरन सामूहिकता, सृजनात्मकता सामूहिकीकरण का जीता जागता प्रमाण है. यहां स्थापित संग्रहालय में पूर्व के दो सम्मेलनों से नया एवं जीवंतता का प्रमाण है. साहित्य शब्द का संस्कृत मेंं क्या अर्थ होता है मुझे पता नहीं है.
मैं इतना जरूर जानता हूं कि जिससे जिस भाषा में बात किया जाय वही साहित्य है. साहित्य के क्षेत्र मेंं जो काम कर रहे हैं वे स्वतंत्र हैं, उन्हें परस्पर निर्भर रहकर चलने की आवश्यकता नहीं है. सहयोग की अपेक्षा स्वातंत्र्य ही उनके स्वाभाव हेतु अधिक उपयोगी है. परंतु स्वतंत्र रुप से गठित होने पर भी वही साहित्य हमारी राष्ट्रीय एकता व मिलन का उपाय भी है. बीमारी में आये थे टेगौर, पहले आने पर असमर्थता जतायी थी निमंत्रण मिलने पर दुखी मन से कविगुरु टैगोर ने वोलपुर से टेलीग्राम द्वारा असमर्थता जताई थी. तब कासिम बाजार के महाराजा मनींद्र चंद्र नंदी ने भागलपुर के उत्साही युवा वकील धीरेंद्र नाथ सेन को वोलपुर जाकर उन्हें ससम्मान लाने की जिम्मेदारी सौंपी.
युवा वकील श्री सेन के साथ टेगौर 13 फरवरी 1910 रविवार की शाम को भागलपुर पहुंचे. टीएमबीयू स्थित रवींद्र भवन टिल्हा कोठी पर टेगौर ने भागलपुर के प्रफुल्ल नाथ ठाकुर ने उनका आतिथ्य सम्मान स्वीकारा. उनके ही अतिथि बनकर कविगुरु टेगौर तीन रातों तक टील्हा कोठी पर रहे थे. दिन में सम्मेलन स्थल एवं रात्रि में टील्हा कोठी पर विश्राम करते थे. चंपानगर निवासी महाशय अमरनाथ घोष की भी सम्मेलन में सक्रिय भागीदारी थी.