पटना. बिहार की राजनीति में कर्पूरी ठाकुर(Karpoori Thakur) का नाम उन चुनिंदा चेहरों में शामिल हैं, जिनका भूलना निकट के भविष्य में संभव नहीं है. बिहार की राजनीति में पिछड़ों के उभार की शुरुआत का वे एक प्रतीक हैं. जननायक कर्पूरी ठाकुर को उनकी इसी नायकत्व के लिए भारत सरकार ने उन्हें सबसे बड़े नागरिक सम्मान भारत रत्न से सम्मानित करने का फैसला किया है. कर्पूरी ठाकुर का जन्म तत्कालीन दरभंगा जिले के पितौझिया गांव में हुआ था. इनके पिता गोकुल ठाकुर गांव के सीमांत किसान थे और अपने पारंपरिक पेशा, नाई का काम भी करते थे. 1972 में समस्तीपुर को अलग जिला बना दिया गया है और कालांतर में पितौझिया गांव का नाम भी बदल कर कर्पूरी ग्राम कर दिया गया है.
दरभंगा के इस गांव में कर्पूरी ठाकुर का हुआ था जन्म
कर्पूरी ठाकुर बिहार और पूरे उत्तर भारत की राजनीति में पिछड़ों के उभार की शुरुआत का एक प्रतीक हैं. उन्होंने अपने कार्यकाल में कई ऐसे फैसले लिए जिन्हें तब की राजनीतिक जमात ने शायद पसंद नहीं किया. यही वजह रही जिसके कारण दो बार राज्य का मुख्यमंत्री बनने के बाद भी वे कभी अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर पाए. भारत छोड़ो आंदोलन के समय कर्पूरी ठाकुर ने करीब ढाई साल जेल में बिताया था. इसके बाद कर्पूरी ठाकुर 22 दिसंबर 1970 से 2 जून 1971 और 24 जून 1977 से 21 अप्रैल 1979 के दौरान दो बार बिहार के मुख्यमंत्री पद पर रहे.
कर्पूरी ठाकुर को क्यों कहा जाता है जननायक
राजनीति के जानकार बताते है कि जननायक कर्पूरी ठाकुर की लोकप्रियता के कारण उन्हें जननायक कहा जाता है. जननायक कर्पूरी ठाकुर भारत के स्वतंत्रता सेनानी, शिक्षक राजनीतिज्ञ और बिहार के दूसरे उपमुख्यमंत्री भी रह चुके हैं. नाई जाति में जन्म लेने वाले कर्पूरी ठाकुर सरल हृदय के राजनेता माने जाते थे. वे सामाजिक रूप से पिछड़ी जाति से जुड़े थे, लेकिन उन्होंने राजनीति को जनसेवा की भावना के साथ जिया था. उनकी सेवा भावना के कारण ही उन्हें जननायक कहा जाता है.
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