समाज की सामूहिक चेतना की अभिव्यक्ति भी है चुनाव. चुनाव के जरिये यह संकेत मिलता है कि उस समाज की आकांक्षा क्या है. इस प्रक्रिया को किसी सरकार के बनाने और नहीं बनाने तक ही सीमित कर नहीं देखा जाना चाहिए. इसकी एक सांस्कृतिक अभिव्यक्ति भी होती है. चुनाव का यह ज्यादा मजबूत पक्ष है. इसी पक्ष पर पढ़िए संस्कृति कर्मी तनवीर अख्तर का नजरिया.
बिहार की जनता समस्याओं के कुएं में गिरी हुई है़ उसकी उम्मीद है कि आने वाली सरकार विकास की रस्सी थमाकर उसे समस्याओं से बाहर निकाल लेगी. वहीं राजनीतिक दल वोटर को जाति-धर्म व डर की डोर से बांधने को आमादा है़ं
ऐसे-ऐसे उम्मीदवार दिये हैं कि एक से दो करोड़ वोटरों को तो यह तय करना पड़ रहा है कि बड़े या छोटे अपराधी में से किसे वोट दिया जाये़ वरिष्ठ रंगकर्मी तनवीर अख्तर इस बात से भी चिंतित हैं कि एक भी पार्टी संस्कृति-विरासत को चुनावी मुद्दा ही नहीं मान रही़ हर बात के लिए नेहरू-लालू को दोषी बताना और 15 साल बनाम 15 साल पर चुनाव होना जनता को ठगना है़
यह हिसाब लेने का वक्त है़ वोट मांगने वालों से पूछा जाना चाहिए कि राज्य के लिए आपने क्या किया? सभी राजनीति दल जाति-धर्म, भावनात्मक रूप से ब्लैकमेल न कर सकें इसके लिए खुली बहस की जरूरत है़ अभी तक इस पर बात नहीं हो रही है़ लोगों के नजरिये के आधार पर वह कहते हैं कि आम वोटर के हिसाब से चुनाव का सबसे बड़ा मुद्दा यह है कि छोटे और मंझोले उद्योग क्यों नहीं खोले गये़ एक दल के नेता के बयान पर भी जनता को आपत्ति है़
उद्योग के लिए बहुत सघन आबादी, जमीन की कमी का कोई उदाहरण देता है, तो वह धोखा है़ राज्य में कई चीनी मिल थी़ं उनकी सैकड़ों एकड़ जमीन आदि संसाधन का उपयोग क्यों नहीं हुआ़ मखाना की बहुत मांग है़
इसकी पैकेजिंग फैक्ट्री भी लगनी चाहिए. रोजगार नहीं होगा, तो बचे हुए प्रवासी मजदूर फिर बाहर चले जायेंगे़ शिक्षा और बहाली में बड़ा सुधार होना चाहिए. हर जिले में संस्कृति समिति बने. खेल कोटे के तर्ज पर बहाली भी हो़ तंज कसते हैं कि रोड, पुलिया बिजली से चमक आयी, तो कस्बों तक में जींस के शोरूम खुल गये़ जींस की फैक्ट्री नहीं खुली़ बाढ़-स्वच्छ भारत भी बड़ा मुद्दा है़
Posted by Ashish Jha