गुलशन कश्यप, जमुई : 2300 साल पुरानी आदिम पहाड़िया जनजाति का हिस्सा रही माल पहड़िया के अस्तित्व पर जिले में खतरा मंडरा रहा है. स्थिति ऐसी हो चली है कि कभी अपने बहादुरी और दिलेरी के कारण पहचान बनाने वाली इस जनजाति को अब अपने अस्तित्व को बचाने को लेकर जंग लड़नी पड़ रही है. सरकार के महत्वाकांक्षी योजनाओं की चमक तो दूर आज तक न तो पहाड़िया समुदाय के लोगों को घर नसीब हो सका है और ना ही इन्हें जमीन मिला है.
स्थिति यह है कि पिछली सरकार ने इन्हें आरक्षण देने का फैसला तो कर लिया पर, आरक्षण का लाभ लेने के लिए इस समुदाय के लोगों का जाति प्रमाण पत्र तक नहीं बनता है. ऐसे में माल पहाड़िया जनजाति के लोगों की समस्या इस बार विधानसभा चुनाव का एक बहुत बड़ा मुद्दा होगा. वह भी जमुई जिले के एक या दो नहीं बल्कि 3 विधानसभा क्षेत्र का प्रतिनिधित्व करने वाले जनप्रतिनिधियों के लिए इनकी समस्या एक बहुत बड़ा प्रश्न होगा.
क्योंकि बीते कई दशकों में जहां एक तरफ पूरे राज्य में विकास की चीजें हुई है तो वहीं दूसरी तरफ पहाड़िया जनजाति के लोग आज तक मुख्यधारा में शामिल नहीं हो सके हैं. इस जनजाति के लोग आज भी जंगलों में निवास करते हैं और जीविकोपार्जन के नाम पर पत्तल बनाना, लकड़ी काटना, दातुन बेचना आदि इन का मुख्य पेशा है. केंद्र और राज्य की सरकारें उनके सुरक्षा संरक्षण और विकास पर फोकस करने की बात तो कह रही है, पर पहाड़िया जनजाति के बस्तियों में आज भी गरीबी, बेकारी, फटेहाली और उपेक्षा पसरी हुई है.
बताते चलें कि जमुई जिले के 3 विधानसभा क्षेत्र में माल पहाड़िया जनजाति के लोगों की अच्छी खासी आबादी है. जिले के चकाई विधानसभा क्षेत्र में 10 हजार के करीब माल पहाड़िया जनजाति के लोग निवास करते हैं. जो जिले के किसी विधानसभा में सबसे अधिक जनसंख्या है. जबकि सिकंदरा विधानसभा क्षेत्र के खैरा प्रखंड के टिटहियां, बरदौन, शोखो सहित दर्जनों गांव में चार हजार माल पहाड़िया जनजाति के लोग निवास करते हैं.
वहीं जिले के झाझा विधानसभा क्षेत्र के खुरंडा,बाराकोला, रजला सहित आधा दर्जन से अधिक पंचायत में पांच हजार के करीब माल पहाड़िया जनजाति निवास करती है. पर सुविधाओं के नाम पर आज तक इन्हें कुछ भी नसीब नहीं हुआ है. स्थिति यह है कि इनके पास अपनी जमीन तो है नहीं, जो भी है वह भी धीरे-धीरे समाप्त होता जा रहा है.
जानकार बताते हैं कि पहाड़िया जनजाति का इतिहास ईसा से 300 साल पुराना है. इस जनजाति में माल पहाड़िया, सौरिया पहाड़िया, साबर, असुर, बिरहोर, बिरिजिया, कोरबा, खड़िया, परहिया, हिलखड़िया सहित अन्य आदिम जनजातियां शामिल हैं. इन सभी जनजातियों के समक्ष अपने अस्तित्व को बचाने की लड़ाई है. क्योंकि जंगल-पहाड़ में इनके निवास स्थान हैं. जहां झरना, पहाड़ी नाले आदि ही इनके पानी का स्रोत हैं.
कंदमूल इनके भूख मिटाने का साधन है. जिस कारण यह कुपोषण के शिकार हैं. अशिक्षा, भूख और बीमारी मूल रूप से इनका पहचान है. पहाड़ी इलाकों में रहने के कारण इन जनजातियों की आबादी तेजी से घटी है और धीरे-धीरे यह विलुप्त होने के कगार पर भी पहुंच रही है. झारखंड राज्य बनने के बाद इस जनजाति की एक बड़ी जनसंख्या झारखंड में भी निवास करती है, तो वहीं बिहार में भी जमुई जिले में इस जनजाति के लोगों की संख्या अच्छी खासी है.
गौरतलब है कि जमुई एक नक्सल प्रभावित इलाका है तथा जिले के जंगली इलाकों में नक्सली का अच्छा खासा वर्चस्व है. ऐसे में पहाड़िया समुदाय के लोग हमेशा से नक्सलियों का निशाना बने हैं. हालांकि आदिम जनजाति के सभी युवा नक्सली संगठन के प्रभाव में है, ऐसा नहीं है. मगर यह भी सच है कि यह युवा नक्सलियों का सॉफ्ट टारगेट रहे हैं और इन्हें बरगलाने में उन्हें कामयाबी मिली है. इसका कारण भी है कि आदिम जनजाति के लोग हमेशा से लड़ाकू स्वभाव के रहे हैं तथा यह अपने आने वाली पीढ़ियों को भी पारंपरिक हथियार चलाने का प्रशिक्षण देते रहे हैं.
पहाड़िया जनजाति का इतिहास शौर्य गाथाओं से भरा हुआ है. जानकारों का मानना है कि मुगल काल के दौरान पहाड़िया जनजाति को काफी सम्मान दिया जाता था. मुगल शासकों ने पहाड़िया दस्तों को अपनी सेना में शामिल किया था. अंग्रेजी शासनकाल के दौरान विद्रोह करने वाले तिलकामांझी भी इसी समुदाय के थे. जिन्होंने 1784 में भागलपुर के तत्कालीन कलेक्टर अगस्त क्लीवलैंड की हत्या की थी. ब्रिटिश हुकूमत भी पहाड़िया की सैन्य क्षमता का कायल था. लेकिन बाद के समय में यह अस्तित्व बचाने के संकट में घिर गए हैं.
Posted by Ashish Jha