सुरेंद्र किशोर, पटना : बिहार में इन दिनों विधायक बनने की अभूतपूर्व आपाधापी है. लगता है कि राजनीति में अब चुनावी टिकट ही सब कुछ है. उसके लिए कोई दल छोड़ रहा है तो कोई सिद्धांत. साथ ही, इस चुनाव में कुछ नेताओं ने ऐसी शक्तियों से भी समझौता कर लिया है जो हमारे राज्य के लिए भयंकर रूप से खतरनाक साबित हो सकती हैं. विधायकों के साथ जुड़े घोषित-अघोषित अधिकार, आकर्षण और सुविधाएं दिन-प्रतिदिन बढ़ते जाने के कारण टिकट की लालसा में तीव्रता आती गयी है.
एक समय इस राज्य में ऐसे नेता भी थे, जो टिकट आॅफर होने के बावजूद चुनाव लड़ने को तैयार नहीं होते थे. कई नेता अपने परिजन को इससे दूर रखते थे. 1969 में पीरो से पूर्व विधायक राम इकबाल बरसी ने 1977 में यह कहते हुए चुनाव लड़ने से मना कर दिया था कि ‘बार -बार मैं ही चुनाव लड़ूंगा ?’ उन्होंने पार्टी से कहा कि किसी वर्कर को टिकट दे दीजिए.
उसी साल समाजवादी धड़े ने चम्पा लिमये को मुंगेर से लोकसभा चुनाव लड़वाने का प्रस्ताव रखा. इस पर उनके पति मधु लिमये ने कह दिया कि वहां सेे श्रीकृष्ण सिंह को टिकट दीजिए. वही हुआ. जनता पार्टी के श्रीकृष्ण सिंह 1977 में मुंगेर से लोक सभा के सदस्य चुने गये. शिवानंद तिवारी ने भी 1977 में विधान सभा चुनाव लड़ने से मना कर दिया था.
1972 में बिहार के विधायक को हर माह तीन सौ रुपये मिलते थे. कमेटी की बैठक होने पर 15 रुपये दैनिक भत्ता. तब कर्पूरी ठाकुर अपने परिवार से कहा करते थे कि आप लोग पटना के बदले गांव जाकर रहिए. 1974 में मैंने देखा था कि समाजवादी पार्टी के एक ईमानदार एमएलसी के यहां उनके परिवार के सदस्यों की संख्या के अनुसार आलू गिनकर सब्जी बनती थी.
जेपी आंदोलन के समय प्रतिपक्ष के विधानसभा सदस्यों ने तो इस्तीफा दे दिया. एमएलसी ने कमेटी का बहिष्कार कर रखा था. उसके विपरीत आज विधायक को कितनी घोषित-अघोषित सुविधाएं मिलती हैं? थोड़ा लिखना, अधिक समझना! फिर विधायक बनने के लिए आकर्षण क्यों न बढ़े? कहीं मंत्री बन गये, तब तो कहना ही क्या. हाल में एक व्यक्ति ने खुश होकर मुझे एक खास बात बतायी.
कहा कि हमारे क्षेत्र से एक ऐसे निवर्तमान विधायक को फिर से उम्मीदवार बना दिया गया है जो अंचल कार्यालय के अफसरों से कभी ‘चंदा’ नहीं लेते. बिहार के इस चुनाव में खूब राजनीतिक व गैर राजनीतिक ‘खेल-तमाशे’ हो रहे हैं. उसे देखकर यही लगता है कि इस देश-प्रदेश की राजनीति दिन -प्रति रसातल में जा रही है. हालांकि यह कहना भी सही नहीं होगा कि सारे विधायक व सांसद और मंत्री लोभी ही हैं. कई तो अब भी बहुत ठीकठाक हैं.
फणीश्वरनाथ रेणु की साठ के दशक में लिखित एक रपट का एक अंश यहां प्रस्तुत है. ‘बिहार के पुलिस मंत्री रामानंद तिवारी ने चंद रोज पहले पत्रकार सम्मेलन में रहस्योद्घाटन के भाव में एक ऐसी बात कही जिसका न कहा जाना ही ज्यादा अच्छा था.
उन्होंने कहा कि इन दिनों कांग्रेसी नेता हमारी सरकार को कमजोर करने की जी-तोड़ कोशिश कर रहे हैं. कांग्रेस के ऐसे ही एक नेता ने संसोपा विधायक लोहारी राम को फुसलाने और पार्टी से अलग हो जाने के लिए कई प्रलोभन दिये. जब लोहारी राम किसी भी शर्त पर राजी नहीं हुए तो उन्होंने पूछा कि तुम संसोपा छोड़ने की क्या कीमत चाहते हो?
लोहारी राम ने कहा -‘क्योंकि मेरी पत्नी काफी बूढ़ी हो गयी है. अतः मैं एक नयी और नौजवान पत्नी चाहता हूं.’ लोहारी राम की शर्त सुनने के बाद वह कांग्रेसी नेता चुप हो गये.’ दरअसल लोहारी राम किसी भी कीमत पर दल छोड़ना नहीं चाहते थे.
इसीलिए उन्होंने ऐसी शर्त बता दी जो पूरी होने वाली नहीं थी. मैंने भी उस विधायक को देखा था. सिर में मुरेठा और हाथ में लाठी. यह याद नहीं कि उनके पैरों में जूते थे या नहीं. अभाव के बावजूद वे लालच से दूर थे. वे 1967 में गया जिले के मखदुमपुर से विधायक चुने गये थे.
दानापुर विधानसभा क्षेत्र के सभी 515 मतदान केंद्रों को अति संवेदनशील घोषित कर दिया गया है. मनेर के 417 में से 341 बूथों को भी अति संवेदनशील घोषित किया गया है. इस तरह बिहार के कई विधानसभा क्षेत्रों के अनेक मतदान केंद्रों को अति संवेदनशील घोषित किया गया है. यह सब हर चुनाव से पहले किया जाता रहा है. ऐसा क्यों किया जाता है, यह जगजाहिर है. फिर तो सामान्य दिनों में उन जगहों की विशेष निगरानी पुलिस क्यों न करे.
टिकट से वंचित हो जाने के बाद कितने नेताओं ने दल छोड़े? यह विवरण पेश करना अब अधिक महत्वपूर्ण नहीं रह गया है. यह तो आम चलन हो चुका है. बल्कि पता इस बात का लगाया जाना चाहिए कि टिकट न मिल पाने के बावजूद कितने नेतागण अपने-अपने दल में बने रह गये.
Posted by Ashish Jha