Bihar Election 2020 : इस चुनाव में एक अलग ही नजारा दिख रहा है. विधानसभा चुनाव में हर बार स्थानीय मुद्दे हावी रहते हैं, लेकिन इस बार यह सिरे से नदारद है. ऐसा नहीं है कि मुद्दे हैं ही नहीं. इन्हें बड़ी ही खूबी से गायब कर दिया गया है. इस कारण सारे अहम मुद्दे नेपथ्य में चले गये हैं. चुनावों में नेतृत्व के व्यक्तित्व का प्रभाव पड़ना लाजिमी है, लेकिन उसके साथ मुद्दे भी मुखर रहते हैं.
किंतु विधानसभा चुनाव के इतिहास में यह पहला अवसर है, जब मुद्दे को सामने रखकर नहीं बल्कि गठबंधनों के नेतृत्व के चेहरे को आगे रखकर चुनाव लड़ा जा रहा है. इस बार सभी नेताजी अपने दल के बड़े चेहरे के भरोसे चुनावी वैतरणी पार करने की जुगत में दिख रहे हैं. प्रचार-प्रसार का अलग ही तरीका देख कर इस बार सारे मतदाता भ्रम में पड़े हैं.
असल में ऐसा लग रहा है जैसे नेताजी यह समझ गये हैं कि कुछ भी आगे करने का वादा किया, तो लोग पीछे के वादे का पूछ बैठेंगे. इसलिए इससे कटते हुए नेताजी खुद की ढिंढोरा पीटने लग जाते हैं कि यह किया, वह किया. भूल से भी कोई यह कहता नहीं मिल रहा है कि आगे यह करूंगा या कर दूंगा.
सत्ता पक्ष के उम्मीदवार गा रहे मोदी-नीतीश राग: सत्ता पक्ष के उम्मीदवार जनसंपर्क में मोदी-नीतीश राग ही गा रहे हैं. उन्हें ऐसा लग रहा है जैसे एक नाम केवलम से उनका बेड़ा पार हो जायेगा. कहीं भी क्षेत्र में किये गये विकास की चर्चा की सुगबुगाहट होने को होती है, तो केंद्र और सरकार की विभिन्न योजनाओं पर कार्य किये जाने का दावा कर अपनी पीठ थपथपा ली जा रही है.
एनडीए पीएम मोदी और सीएम नीतीश के चेहरे को आगे रखकर चुनाव मैदान में हैं. कुछ ऐसा ही नजारा महागठबंधन के प्रत्याशियों का है, जो तेजस्वी यादव को चेहरा सामने ला कर अपनी ताकत दर्शा रहे हैं. वहीं लालू प्रसाद के जमाने की उपलब्धियां भी गिनायी जा रही हैं.
सत्ता पक्ष के उम्मीदवार जीभर कर अपनी सरकार और उसके काम का गुणगान कर रहे हैं, तो विपक्षी प्रत्याशी उनकी खिंचाई को ही अपनी ताकत मान कर चल रहे हैं. राजद और कांग्रेस प्रत्याशी 10 लाख नौकरी का लेखा-जोखा मांगते दिख रहे हैं. पकौड़ा भी फिर से गरम हो चला है. एनआरसी का मुद्दा और धर्म की अफीम के नशे से चुनावी माहौल तरबतर किया जा रहा है. पक्ष वाले ऐसे सवालों का जवाब देने से बचते दिख रहे हैं. बहुत जरूरी हुआ, तो राजद के 15 साल से तुलना और कांग्रेस राज के 70 साल की बहस परवान चढ़ने लगती है.
जो नजारे प्रचार-प्रसार के क्रम में सामने आ रहे हैं, उससे आम मतदाता असमंजस में पड़ कर रह गये हैं. उन्हें समझ नहीं आ रहा है कि क्षेत्र का समग्र विकास नहीं हो पाने के लिए कौन दोषी है. चुनावों के वक्त भी परिस्थितियां क्यों नहीं मतदाताओं के पक्ष में हो रही? मतदाता कुछ ठोस करने की सोच रखते हैं, लेकिन फिर खुद के तर्क से हार कर मतदान केंद्र पहुंचते-पहुंचते उसी प्रत्याशी का भाग्य का पिटारा खोल आते हैं. इससे उनका मन भरता है. कुल मिला कर मुद्दे यहां भी नेपथ्य में चले जाते हैं और फिर चलता रहता है पांच साल तक नेताजी और खुद के फैसले को कोसने का सिलसिला.
निवर्तमान नेताजी भविष्य की ताकझांक छोड़कर अतीत भुनाने पर तुले हैं. लेकिन रोचक तथ्य यह है कि कोई भी बिजली के ट्रांसफॉर्मर लगाने और सड़क का कार्य कराने से आगे नहीं बढ़ पा रहे हैं. सात निश्चय का राग जरूर अलापा जा रहा है. विपक्षी निवर्तमान नेताजी के पास खरा सा जवाब है. मैं सरकार के विरोध में था, आखिर क्या करता मैं?
Posted by Ashish Jha