राजीव कुमार : जाति व ऊंच नीच पर आधारित भेदभाव वाली एक सामाजिक व्यवस्था है, जिसकी उत्पत्ति वैदिक काल से ही हो गयी थी. तब शायद इसका रूप- रंग अलग था. भगवान बुद्ध से लेकर राजा राम मोहन राय तक सभी ने जाति प्रथा पर प्रहार किया, किंतु जातीय जड़ता कम न हुई. आजादी के पूर्व धर्म एवं जाति के अनुसार पृथक निर्वाचन अधिकार एक पड़ाव था. जाति सत्ता में पहुंचने की सबसे आसान सीढ़ी बन गयी. इस प्रकार बाहुबल, धनबल के साथ-साथ जाति बल भी एक जिताउ फैक्टर बन गया. कबीर की वाणी का असर पार्टियों पर नहीं हुआ जिसने सज्जन पुरुषों की जाति के बजाय गुण देखने की वकालत करते हुए कहा जाति ना पूछो साधु की पूछ लीजिए ज्ञान.
अलबता उम्मीदवारों के लिए जाति उसका सबसे बड़ा गुण बन गया और सोशल इंजीनियरिंग राजनीतिक दलों के लिए सत्ता प्राप्ति का सबसे आसान रास्ता. बिहार की राजनीति में इसका उभार 1990 – 95 के बीच अचानक देखने को मिला. किंतु यह कुछेक जातियों का विकास था,सभी का नहीं. बाकियों को पिछलग्गू बन कर ही रहना पड़ा. लोहिया के विचारों को समाजवादियों ने स्वहित में अपनाया. उन दिनों विधानसभा चुनाव के उपरांत एक दर्जन से अधिक जातीय रैलियां हुईं. 1994 में दूसरी अन्य दबंग पिछड़ी जाति के नेताओं ने भी रैली की. यह सत्ता हासिल करने का सूत्र बन गया कि अपनी जाति का वोट कितना है, अपनी जाति पर पकड़ कैसी है और वोट हासिल करने के तरीके क्या हैं?
इस संबंध में वरिष्ठ पत्रकार सुकांत नागार्जुन कहते हैं, सोशल इंजीनियरिंग महज सक्षम को और अधिक सक्षम बनाने की कवायद थी. सत्ता में अभिवंचितों की अपेक्षित भागीदारी नहीं हुई. अति पिछड़ी जातियों में भी सारा लाभ कुछेक जातियों को ही मिला. एक सामाजिक चिंतक ने कहा कि बिहार के लोकसभा चुनाव में पचास फीसदी, विधानासभा चुनाव में पचहत्तर फीसदी एवं पंचायत चुनाव में सौ फीसदी जातियों के आधार पर चुनाव होते हैं. लेकिन, पिछले दिनों राज्यसभा के चुनाव में अभूतपूर्व नजारा देखा गया.जातियों को लेकर जोर- शोर से प्रचार–प्रसार किया गया. नि:संदेह अब प्रत्येक चुनाव लगभग सौ प्रतिशत जातीय समीकरण के अनुसार टिकट दिये जाते हैं. पिछले दिनों यूपी में ताबड़तोड़ जातीय रैलियों के विरुद्व एक याचिका दायर की गयी थी.
2013 में इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने अपने निर्णय में जातीय रैलियों पर प्रतिबंध लगा दिया था. याचिकाकर्ता ने अपने याचिका में कहा था कि विभिन्न राजनीतिक दल चुनाव निकट आते ही समाज को जातीय आधार पर बांटने का काम करते हैं. कहा गया कि जातीय नाम देकर रैलियों का आयोजन करना और चुनाव के बाद विशेष जाति के लोगों को अधिक लाभ देना संविधान व कानून दोनों के खिलाफ है.जाति के आधार पर बंटवारे से समाज में असंतुलन पैदा होता है एवं साफ–सुथरी चुनाव की मंशा धरी- की- धरी रह जाती है. देश की अखंडता एवं सामाजिक संरचना को नुकसान होता है. लोगों मे अविश्वास पैदा होता है. सच्चाई यह है कि देश की राजनीति आज जातिवाद के कैद में है.
(लेखक एडीआर से जुड़े हैं. ये लेखक के निजी विचार हैं.)
posted by ashish jha