Bihar election 2020 : वोट बहिष्कार और नोटा में समाधान खोजना होगा

बिहार के लखीसराय के कई गांवों के लोगों को गर्मी के दिनों में कई किलोमीटर दूर से पेयजल ढोकर लाना पड़ता है. चार सौ घरों के मझियांवा में बारह सौ मतदाता हैं,जो पिछले लोकसभा चुनाव में आजादी के बाद मिले सबसे बड़े और क्रांतिकारी वोट के अधिकार का बहिष्कार कर दिया, लेकिन उनकी मांगें देश की आजादी के बीते 74 वर्षों में पूरी नहीं हो पायीं.

By Prabhat Khabar News Desk | September 1, 2020 8:50 AM

राजीव कुमार, पटना : बिहार के लखीसराय के कई गांवों के लोगों को गर्मी के दिनों में कई किलोमीटर दूर से पेयजल ढोकर लाना पड़ता है. चार सौ घरों के मझियांवा में बारह सौ मतदाता हैं,जो पिछले लोकसभा चुनाव में आजादी के बाद मिले सबसे बड़े और क्रांतिकारी वोट के अधिकार का बहिष्कार कर दिया, लेकिन उनकी मांगें देश की आजादी के बीते 74 वर्षों में पूरी नहीं हो पायीं. आज भी उनके लिए पेयजल जीवन ही सबसे बड़ी हसरत है. बिहार के चुनाव में नक्सली संगठनों द्वारा वोट बहिष्कार की पुरानी परंपरा रही है.

नक्सल प्रभाव वाले इलाकों में इसका प्रभाव भी दिखता था,लेकिन आजादी के 66 वर्षों के बाद अमोघ अस्त्र के रूप में नोटा मिला है. लोकतंत्र के सफर में हम आज जीवन की नैसर्गिक जरूरतों तो पूरा करने के लिए नोटा के प्रयोग के आगे कुछ भी सोच पाने में असमर्थ साबित हो रहे हैं. लोकतंत्र में असहमति का अधिकार सभी को है. नोटा के अस्तित्व में आने के पीछे यही दर्शन रहा है. भारत के लोकतंत्र के इतिहास में एक महत्वपूर्ण फैसला 27 सितंबर, 2013 को उस समय सामने आया जब सर्वोच्च न्यायालय ने पीपुल्स यूनियन ऑफ सिविल लिबर्टीज (पीयूसीएल) द्वारा दाखिल की गयी जनहित याचिका का निबटारा करते हुए भारत के निर्वाचन आयोग को आदेश दिया कि वह इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन (इवीएम) में उपरोक्त में से कोई नहीं नोटा का बटन लगाये ताकि जो मतदाता चुनाव लड़ रहे उम्मीदवारों में से किसी को भी वोट न देना चाहते हों वह अपना वोट गोपनीयता बनाये रखते हुए अपने विकल्प का इस्तेमाल कर सके.

2019 के लोकसभा में एक तिहाई सीटों पर नोटा को आठ लाख से अधिक वोट मिले. सबसे अधिक 27 हजार 683 बार नोटा बटन दबा जहानाबाद में. नोटा ने जहानाबाद के चुनावी नतीजों को प्रभावित किया. इस सीट पर हार -जीत का अंतर महज 1751 वोटों का है, जबकि यहां नोटा को 27 हजार 683 मत मिले. देश भर में लोकसभा की कई सीटें ऐसी रहीं जहां पर जीत का अंतर नोटा को मिले वोटों से भी कम रहा. करीब दो दर्जन से ज्यादा सीटों पर प्रत्याशियों को नोटा की वजह से हार झेलनी पड़ी. 2014 से भारत में नोटा को अपनाया गया. पहली बार 15 लाख से ज्यादा वोट नोटा को आया था. 16 वीं बिहार विधानसभा के लिए चुनाव में नोटा का जबर्दस्त प्रभाव देखा गया. इसने 23 सीटों पर सीधे तौर पर परिणाम को प्रभावित किया. इन 23 सीटों पर जितने मतों के अंतर से जीत हासिल हुई. उससे कहीं अधिक नोटा के पक्ष में बटन दबे. यह चुनाव इस मायनों में भी खास रहा क्योंकि मतदाताओं ने कई पार्टियों की तुलना में नोटा को ज्यादा वोट दिया.

नोटा के तहत होना यह चाहिए कि नोटा को यदि चुनाव में खड़े उम्मीदवारों में यदि सबसे अधिक मत नोटा को मिले, तो वह चुनाव रद्द हो जाना चाहिए. उसके बाद पुन: चुनाव करवाये जाने चाहिए, जिसमें पूर्व में खड़े उम्मीदवारों को चुनाव लड़ने की अनुमति नहीं मिलनी चाहिए. यानी पुन: नये उम्मीदवारों के साथ पुनर्मतदान कराये जाने चाहिए. नोटा भारत में नकारात्मक फीडबैक देने का काम करने लगा है, अब कुछ राजनीतिक दलों के प्रतिनिधि भी नोटा को लेकर नकारात्मक माहौल बनाने में लगे हुए हैं या इसकी प्रासंगिकता पर सवाल खड़े कर रहे हैं जो बिल्कुल ही लोकतंत्र की अवधारणाओं के विरुद्ध है. हाल में महाराष्ट्र और हरियाणा स्टेट इलेक्शन कमीशन की पहलकदमी से नोटा के प्रति भरोसा जगा है. छह नवंबर, 2018 को महाराष्ट्र में स्टेट इलेक्शन कमीशन ने एक ऑर्डर पास किया है कि नोटा को यदि बहुमत मिल जाता है तो पुनर्मतदान कराया जायेगा. 22 नवंबर, 2018 को हरियाणा स्टेट इलेक्शन कमीशन ने भी यही निर्णय लिया. इसकी एक वजह थी कि महाराष्ट्र के स्थानीय निकाय चुनाव में कई ऐसी सीटें थीं जिनमें नोटा को बहुमत मिला था. पुणे की एक पंचायत में नोटा को 85 प्रतिशत वोट मिल गया. यही ऑर्डर यदि देशव्यापी हो जाये , तो उम्मीद है देश में नोटा की प्रासंगिता बढ़ जायेगी और वोट बहिष्कार की धारा को भी मुकाम मिल जायेगा.

(लेखक एडीआर से जुड़े हैं. यह लेखक की निजी राय है.)

poste by ashish jha

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