Bihar Tourism : गुवारीडी टीले को देखने अचानक पहुंचे नीतीश कुमार, जानिये क्या रहा है आध्यात्मिक इतिहास

ऐतिहासिक गुवारीडीह टीला जयरामपुर गांव के बड़ा बांध पर चढ़ते ही दिखने लगता है. एक ऊंचे स्थान पर हरे-भरे-घने जंगल. यह ऐतिहासिक रूप से जितना महत्वपूर्ण है, उतना ही पर्यावरणीय रूप से भी.

By Prabhat Khabar News Desk | December 21, 2020 11:19 AM
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भागलपुर : ऐतिहासिक गुवारीडीह टीला जयरामपुर गांव के बड़ा बांध पर चढ़ते ही दिखने लगता है. एक ऊंचे स्थान पर हरे-भरे-घने जंगल. यह ऐतिहासिक रूप से जितना महत्वपूर्ण है, उतना ही पर्यावरणीय रूप से भी.

लंबे पेड़ तो अब गिनती में बचे हैं, लेकिन औसत आकार के पेड़ लोग काट रहे हैं. यह टीला दुर्लभ जीव-जंतुओं का भी पनाहगार है. छह-सात एकड़ में फैला यह जंगल वाला क्षेत्र कोसी के कटाव में समाता जा रहा है.

टीले के चारों कोने से झाड़ियों के बीच बनी पगडंडी से अंदर प्रवेश किया जा सकता है, लेकिन यहां हर कदम सोच-समझ कर रखना पड़ता है. सबसे पहले तो कोई भी कदम बढ़ाएं, तो कंटीली झाड़ियों से घिरना तय है.

दूसरा यह कि विभिन्न जगहों पर बिखरे पत्तों के नीचे शाही के कांटे. यहां शाही नामक जंतु की भरमार है, तो जंगली सुअर और नील गाय भी यहां खुद के जीवन बचा रहे हैं.

आध्यात्मिक महत्व का भी है यह स्थान

गुवारीडीह टीला सदियों से आध्यात्मिक महत्व का स्थान रहा है. यहां एक ऐतिहासिक कामा माता का मंदिर हुआ करता था, जो पिछले साल 2019 में आयी बाढ़ व हुए कटाव में बह गया.

लोगों की आस्था का यह महत्वपूर्ण केंद्र था. इस कारण ग्रामीणों ने यहां मिलने वाली ऐतिहासिक वस्तुओं में से कुछ खास पत्थर टीले के पास एक पेड़ के नीचे रख कर पूजा करने लगे. कामा माता पर आस्था व विश्वास होने के कारण भी लोग टीले को बचा कर रखना चाहते हैं.

कहां है यह ऐतिहासिक टीला

  • जिला : भागलपुर

  • जिला मुख्यालय से दूरी : तकरीबन 40 किमी

  • प्रखंड : बिहपुर

  • पंचायत : जयरामपुर

  • तट : कोसी नदी का

  • क्षेत्रफल : करीब छह-सात एकड़

क्या-क्या मिले हैं

  1. कृष्ण लोहित मृदभांड

  2. धातुमल

  3. हिरण, बारहसिंहा जैव जीवाष्म

  4. एनबीपीडब्ल्यू संस्कृति से जुड़े कृषि उपकरण

गुवारीडीह के बारे में खास बातें

प्राचीन अंग महाजनपद की राजधानी रही चंपा की पृष्ठभूमि से जोड़ कर इतिहासकार इसे देख रहे हैं. पटना विश्वविद्यालय के प्रो बीपी सिन्हा ने 1967, 1980 व 1983 में चंपा की खुदाई की थी.

इस दौरान वहां के ट्रेंच से उत्तरी कृष्णलोहित मृदभांड (एनबीपीडब्ल्यू) संस्कृति के मृदभांड मिले थे. इसी तरह गुवारीडीह में प्राप्त अवशेषों में भी एनबीपीडब्ल्यू के अवशेष मिले हैं. लेकिन यहा बीआरडब्ल्यू की बहुलता है.

यह इसके ताम्र पाषाणिक संस्कृति की संभावनाओं को लक्षित करते हैं. इससे परिलक्षित होता है कि प्राचीन चंपा और गुवारीडीह में परस्पर किसी न किसी प्रकार के व्यापारिक-सांस्कृतिक संबंध रहे होंगे. इस पर शोध और अध्ययन की आवश्यकता जतायी गयी है.

Posted by Ashish Jha

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