राजगीर. मनुष्य का अस्तित्व पर्यावरण पर निर्भर करता है. लेकिन स्वस्थ जीवन जीने के लिए योग द्वारा हमारी सभी इंद्रियों को जागृत किया जाता है. इसलिए योग और पर्यावरण के बीच गहरा रिश्ता है. जब हम हरी-भरी घास पर चलते हैं, तो सुबह की बूंदाबांदी में भीगे घास के पत्तों का स्पर्श पैरों के लिए सबसे स्वस्थ व्यायाम है. फूलों की खुशबू मूड को बदल देती है. नालंदा विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो अभय कुमार सिंह ने एक कार्यक्रम में कहा कि दोनों के बीच दिलचस्प रिश्ता है. शांत मन किसी समस्या का समाधान देता है, तो पर्यावरण संतुलित मानसिकता के साथ पनप सकता है. प्रदूषण हमेशा बीमारियों को जन्म देता है. गतिहीन जीवनशैली अक्सर लोगों को बीमार करता है. लेकिन योग के अभ्यास से आशा की नई किरण पैदा की जा सकती है. उन्होंने कहा कि योग का सबसे अच्छा हिस्सा पर्यावरण है. ध्यान मन को शांत करता है. यह प्रकृति के संगीत (पक्षियों की चहचहाहट) को सुनने का विकल्प देता है. शोध से पता चला है कि मिट्टी को छूने से मन प्रसन्न होता है, क्योंकि मिट्टी में मौजूद सूक्ष्म जीव मस्तिष्क पर उसी तरह प्रभाव डालते हैं, जैसे कोई अवसादरोधी दवाएं. मानव शरीर के पाँच इंद्रिया़ं प्रकृति से जुड़ी हैं. सबसे महत्वपूर्ण भूमिका पानी की है. पानी हमारे अस्तित्व का सबसे अभिन्न अंग है. योग में पानी को अनेक रूपों में दर्शाया गया है. जैसे ठंडे पानी की थेरेपी से चिंता नियंत्रित होती है. इससे रक्त संचार को बेहतर बनाती है, रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ती है. मूड को बेहतर बनाती है. शरीर से विषाक्त पदार्थों को साफ करती है. कुलपति प्रो सिंह ने कहा कि पर्यावरण को नुकसान पहुंचाया जा रहा है. इसका असर हमारे शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य पर पड़ रहा है. उन्होंने कहा कि योग के पांच तत्व जैसे वायु, जल, अग्नि, पृथ्वी और अंतरिक्ष हैं. ये सभी पर्यावरण से जुड़े हैं. इनमें से किसी का असंतुलन मानव जाति के लिए समस्या पैदा कर देता है. अच्छे स्वास्थ्य का उत्तर पर्यावरण में निहित है. कुलपति ने पर्यावरण संरक्षण का संदेश देते हुए कहा कि पर्यावरण आदि काल से हमारे अस्तित्व का आधार रहा है. जब मानव का अस्तित्व इस धरा पर नहीं था, तब वायु, जल, वन, वन्य-जीव आदि प्राकृतिक तत्व पृथ्वी पर फल-फूल रहे थे. अर्थात पर्यावरण से ही हम हैं, हमसे पर्यावरण नहीं है. हमें पर्यावरण की जरूरत हैं, पर्यावरण को हमारी जरूरत नहीं है. बिना हवा, पानी, मिट्टी, वनों और जैव-विविधता के हम लोग अपने अस्तित्व की कल्पना भी नहीं कर सकते हैं.
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