देश की दोनों बड़ी राष्ट्रीय पार्टियों को बिहार में नहीं मिल रहा अध्यक्ष, सता रही है समीकरण की चिंता
कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष का कार्यकाल डेढ़ साल पहले पूरा हो चुका है लेकिन पार्टी को अब तक नया प्रदेश अध्यक्ष नहीं मिल पाया है. वहीं दूसरी तरफ भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष का कार्यकाल भी इस साल सितंबर में पूरा हो चुका है. ऐसे में भाजपा भी पिछले दो महीने से नए प्रदेश अध्यक्ष को लेकर मंथन में जुटी है.
ये महज एक संयोग नहीं है कि देश की दो सबसे बड़ी राष्ट्रीय पार्टी भाजपा और कांग्रेस को बिहार में प्रदेश अध्यक्ष नहीं मिल रहा है. कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष का कार्यकाल तो डेढ़ साल पहले पूरा हो चुका है लेकिन प्रदेश अध्यक्ष के लिए पार्टी की तलाश अब तक पूरी नहीं हो पाई है. वहीं दूसरी तरफ भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष का कार्यकाल भी इसी साल सितंबर में पूरा हो चुका है. ऐसे में भाजपा भी पिछले दो महीने से नए प्रदेश अध्यक्ष को लेकर मंथन में जुटी है. लेकिन दोनों राष्ट्रीय दल अभी तक किसी नतीजे पर नहीं पहुंच पाए हैं.
कांग्रेस में है कलह
कांग्रेस ने विधान पार्षद डॉ मदन मोहन झा को सितंबर 2018 में बिहार का प्रदेश अध्यक्ष बनाया था. डॉ झा 1985 से 1995 तक बिहार विधानसभा के सदस्य रहे. इसके बाद 2014 से वो अब तक बिहार विधान परिषद का सदस्य हैं. वो 2015 में गठबंधन की सरकार में मंत्री रह चुके हैं. उनके पिता डॉ नागेंद्र झा भी लंबे अर्से तक विधायक और मंत्री रहे. 2020 के विधानसभा चुनाव में पार्टी की हार के बाद मदन मोहन झा ने प्रदेश अध्यक्ष पद से इस्तीफे की पेशकश की थी. इसके बाद अप्रैल 2022 में उन्होंने दिल्ली स्थित कांग्रेस मुख्यालय जाकर आलाकमान को अपना इस्तीफा सौंपा, बावजूद इसके आज तक वो प्रदेश अध्यक्ष पद पर विराजमान हैं.
पार्टी सूत्र बताते हैं कि पार्टी का आंतरिक कलह नए प्रदेश अध्यक्ष के चयन में बाधा बन रही है. पार्टी के प्रदेश प्रभारी और पूर्व केंद्रीय मंत्री भक्त चरण दास ने एक साल पहले ही प्रदेश अध्यक्ष पद के लिए कुटुंबा से विधायक राजेश कुमार के नाम की अनुशंसा प्रदेश अध्यक्ष के लिए कर दी थी लेकिन, दिल्ली स्थित पार्टी के कुछ बड़े नेताओं ने उनके नाम का विरोध कर दिया.
राजेश कुमार दलित वर्ग से आते हैं. पार्टी सूत्र बता रहे हैं कि राजेश कुमार के नाम का विरोध वैसे नेताओं ने किया जो साल में बीस दिन भी बिहार में नहीं रहते. इतना ही नहीं ये वो नेता हैं जो कांग्रेस से ज्यादा राजद अध्यक्ष के करीब हैं और उन्हीं की कृपा से कांग्रेस में प्रभावशाली हैं. माना जा रहा है कि कांग्रेस आलाकमान लालू प्रसाद की मर्जी के खिलाफ बिहार में कोई महत्वपूर्ण फैसला लेने के पक्ष में नहीं है.
भाजपा का धर्मसंकट
भाजपा के मौजूदा प्रदेश अध्यक्ष डॉ संजय जायसवाल राजद से भाजपा में आए हैं. उनके पिता डॉ मदन प्रसाद जायसवाल भाजपा के कद्दावर नेता थे और बेतिया लोकसभा से 1996 से लेकर 2004 तक लगातार तीन बार सांसद रहे. 2004 में राजद के रघुनाथ झा से वो चुनाव हार गए. 2005 में उन्होंने बेतिया विधानसभा सीट से अपने बेटे डॉ संजय जायसवाल के लिए भाजपा का टिकट मांगा लेकिन तब भाजपा ने उनकी मांग ठुकरा दी. नाराज डॉ मदन जायसवाल ने भाजपा का साथ छोड़ दिया और अपने बेटे डॉ संजय जायसवाल के साथ राजद का दामन थाम लिया. राजद ने तब डॉ जायसवाल को टिकट तो दे दिया लेकिन डॉ जायसवाल उसकी लाज नहीं रख पाए और चुनाव में लालटेन की जमानत तक गवां दी. इसी बीच उनके पिता डॉ मदन प्रसाद जायसवाल का निधन हो गया. सहानुभूति की लहर पर सवार डॉ संजय जायसवाल ने भाजपा में वापसी की और 2009 में लोकसभा का चुनाव जीत गए. उसके बाद 2014 और 2019 में मोदी लहर ने उनका साथ दिया और वो चुनाव जीतते रहे.
बिहार में भाजपा की सबसे बड़ी चुनौती पिछड़ा वर्ग और अति पिछड़ा वर्ग के वोट बैंक को अपने पाले में लाने की थी. ये वो वोट बैंक है जो भले ही मोदी लहर में लोकसभा चुनाव के दौरान भाजपा के साथ खड़ी हो गई लेकिन विधानसभा चुनाव में राजद और जदयू का साथ छोड़ने को तैयार नहीं दिखी. 2014 के लोकसभा चुनाव में भाजपा की झोली भरने वाला ओबीसी 2015 के विधानसभा चुनाव में भाजपा से दूर दिखा. उस चुनाव में राजद को 80 और जदयू को 71 सीटें मिलीं तो भाजपा को मात्र 53 सीटों पर संतोष करना पड़ा.
जायसवाल वैश्य वर्ग से आते हैं और खुल कर पिछड़ा वर्ग की राजनीति करने के लिए जाने जाते हैं. पार्टी ने पिछड़ा वर्ग के वोट बैंक लिए सितंबर 2019 में उन्हें प्रदेश अध्यक्ष बनाया. 2019 के लोकसभा चुनाव में भाजपा ने बिहार में सब का सूपड़ा साफ कर दिया. राज्य की 40 लोकसभा सीटों में से 39 पर भाजपा ने जीत दर्ज की. सिर्फ एक सीट कांग्रेस जीतने में सफल रही. लेकिन 2020 के विधानसभा चुनाव में सवर्ण मतदाताओं का एक हिस्सा भाजपा से नाराज हो गया. वजह थी प्रदेश भाजपा की आक्रामक ओबीसी राजनीति. नीतीश कुमार के जदयू से गठबंधन के बावजूद चुनावी नतीजों में पार्टी राजद से पिछड़ गई. पार्टी 74 सीटों के साथ बिहार विधानसभा में दूसरे नंबर की पार्टी बन पाई. पार्टी को तब लगा कि सवर्णों की नाराजगी भारी पड़ी.
बदल चुका है बिहार का राजनीतिक समीकरण
बिहार का राजनीतिक समीकरण अब बदल चुका है. नीतीश कुमार का जदयू, भाजपा के गठबंधन से अलग हो गया है. मतलब दलित मतदाताओं का बड़ा हिस्सा एनडीए से बाहर है. इतना ही नहीं अपने ही क्षेत्र में सवर्णों से मिल रही चुनौती ने भाजपा प्रदेश अध्यक्ष के सामने चुनौती खड़ी कर दी है. भाजपा जानती है कि राजद ने एक ब्राह्मण को टिकट देकर संजय जायसवाल के पिता और तीन बार लगातार चुनाव जीतते रहे डॉ मदन प्रसाद जायसवाल को 2004 में बड़ी हार के लिए मजबूर कर दिया था. मतलब महागठबंधन ने किसी ब्राह्मण को इस बार अपना उम्मीदवार बनाया तो भाजपा प्रदेश अध्यक्ष के लिए चुनौती बड़ी होगी.
महागठबंधन ने इस बार भी अपनी तैयारी शुरू कर दी है. खबर है कि पश्चिमी चंपारण लोकसभा क्षेत्र के लिए महागठबंधन ने इस बार ब्राह्मण चेहरों पर मंथन शुरू कर दिया है. जिले की वाल्मीकि नगर सीट जदयू के खाते में है इसलिए, पश्चिमी चंपारण जो कि पहले बेतिया लोकसभा क्षेत्र के नाम से जाना जाता था कांग्रेस के खाते में जा सकता है. कांग्रेस आगामी लोकसभा चुनाव में यहां से शाश्वत केदार और असित नाथ तिवारी में से किसी एक को मैदान में उतारने पर विचार कर रही है. शाश्वत केदार पूर्व मुख्यमंत्री केदार पाण्डेय के पोते हैं. उनके पिता डॉ मनोज पाण्डेय इस लोकसभा क्षेत्र का प्रतिनिधित्व कर चुके हैं. असित नाथ तिवारी पेशे से पत्रकार रहे हैं और फिलहाल पार्टी के तेज-तर्रार प्रदेश प्रवक्ता हैं. टीवी चैनलों पर न्यूज एंकर और कवि के तौर पर उनका चेहरा गांव-गांव देख चुका है. छात्र जीवन में एसएफआई से जुड़े रहने की वजह से जिले के गांव-गांव में उनके समर्थक आज भी मौजूद हैं.
भाजपा नए चुनावी समीकरण को लेकर सशंकित है
खबर है कि भाजपा नए चुनावी समीकरण को लेकर सशंकित है. पार्टी लोकसभा चुनाव से पहले डॉ संजय जायसवाल को अध्यक्ष पद से हटाना नहीं चाहती. पार्टी जानती है कि लाख नाराजगी के बावजूद लोकसभा चुनाव में सवर्ण वोटर भाजपा का साथ देंगे. लेकिन बिहार विधानसभा चुनाव पार्टी के लिए बड़ी चुनौती है. कांग्रेस, राजद, जदयू और वाम दलों के गठबंधन के सामने टिकना आसान नहीं दिखता. ओबीसी और सवर्ण भाजपा का साथ देंगे इसकी संभावना बहुत कम है. ऐसे में डॉ जायसवाल की जगह पार्टी किसी ऐसे चेहरे की तलाश में है जो ओबीसी और सवर्ण दोनों को साध सके. फिलहाल भाजपा को ऐसा कोई चेहरा दिख नहीं रहा है.