Caste Census : 1931 में अंग्रेजों के जमाने में हुई थी जाति गणना, सुनवाई के दौरान इन बिंदुओं पर रखी गई दलील
जाति गणना कराये जाने को लेकर पटना हाइकोर्ट से लेकर सुप्रीम कोर्ट में बड़ी बहस हुई. राज्य सरकार ने जहां इसके पक्ष में अपने तर्क दिये. वहीं याचिककर्ताओं ने इसके विरोध में अपनी बातें कहीं. 1931 में अंग्रेजों के जमाने में जाति गणना हुई थी और अब भी उसी आंकड़े को संदर्भ के तौर पर लिया जाता रहा है.
मिथिलेश, पटना. अदालत से जाति गणना का रास्ता साफ होने के बाद जातियों की संख्या और उनसे जुड़े तथ्य सामने आयेंगे. 1931 में अंग्रेजों के जमाने में जाति गणना हुई थी और अब भी उसी आंकड़े को संदर्भ के तौर पर लिया जाता रहा है. बिहार ही नहीं, किसी भी समाज में जाति का प्रश्न संवेदनशील रहा है. बिहार में यह एक बार फिर चर्चा में है. जाति गणना का सवाल जितना सामाजिक है, उससे कम राजनीतिक भी नहीं है. हाल में विपक्षी दलों के गठबंधन ”इंडिया” ने देश भर में जाति गणना की बात को अपने संकल्प पत्र में शामिल किया है. सरकार ने इसके पक्ष में जो तर्क दिये हैं, उसमें उसे राज्य में निवास करने वाले लोगों का सर्वे करा कर उनकी आर्थिक और सामाजिक हैसियत जानना बताया है. सरकार के इस तर्क से उच्च न्यायालय ने अपनी सहमति जतायी है.
जाति गणना की जो रिपोर्ट आयेगी, उससे एक ओर जहां यह पता चल सकेगा कि सरकार विकास योजनाओं की राशि जो खर्च कर रही है, वह संबंधित जाति या वर्ग के लिए उचित है या फिर और बढ़ाये जाने की जरूरत है. इससे सरकार को योजना बनाने में सहूलियत होगी. जाति गणना को लेकर एक संभावना यह भी जतायी जा रही है कि इसके आंकड़े आने के बाद सामाजिक स्तर पर एक तरह की गोलबंदी को नया आधार मिलेगा. इन आंकड़ों से विभिन्न जातियों की मौजूदा आबादी का मिथ भी टूटेगा.
जाति गणना के राजनीतिक मायने भी
जाति गणना के राजनीतिक मायने भी हैं. सियासी पार्टियों की राजनीतिक दावेदारी बनाम हिस्सेदारी का सवाल भी इससे अलग नहीं है. राजनीतिक पार्टियों के सामाजिक आधार के बारे में इससे कई बातें साफ हो पायेंगी. अलग-अलग जाति समूहों के आधार पर राजनीतिक दलों की दावेदारी की सच्चाई भी सामने आ सकेगी.
जातियों की संख्या के साथ मिलेगी हैसियत की जानकारी
सरकार के समक्ष पिछड़ी जातियों एवं अन्य पिछड़ी जातियों की संख्या के साथ ही उनकी हैसियत की जानकारी भी मिल सकेगी. अभी भी एससी-एसटी और अति पिछड़ी जातियों की सूची में दर्जनों ऐसी छोटी जातियों की समूह शामिल है, जिनकी चौखट तक विकास योजनाएं नहीं पहुंच पायी हैं. पिछड़े वर्ग में ही कई जातियां शैक्षिक और आर्थिक लिहाज से क्रमानुक्रम में अन्य जातियों से बेहतर स्थिति में पहुंच गयी हैं. यहीं आकर सरकार को उन योजनाओं को नीचे तक उतारने में मदद मिलेगी जो अब भी वंचित व उपेक्षित हैं. ऐसी कई जातियां हैं जो शैक्षिक व आर्थिक दृष्टि से कमजोर हैं. ये जातियां विकास व प्रगति की दौड़ में पीछे छूट गयी हैं. इन जातियों को आगे बढ़ने का अवसर मिले, तो यह सामाजिक गैर बराबरी को दूर करने की दिशा में बड़ा कदम साबित होगा. बहरहाल, इतना तय है कि जाति गणना की रिपोर्ट से जातियों की सामाजिक हैसियत की हकीकत और फसाना सामने आ सकेगा.
जाति गणना के विपक्ष में वकीलों ने कहा : राज्य सरकार के दायरे में नहीं है जाति गणना
जाति गणना के विपक्ष में याचिकाकर्ताओं की ओर से सुप्रीम कोर्ट के वकीलों ने भी अपने तर्क दिये. कोर्ट को बताया गया कि राज्य सरकार द्वारा जातियों की गणना और आर्थिक सर्वेक्षण का जो कार्य कराया जा रहा है, उसका अधिकार राज्य सरकार के अधिकार क्षेत्र के बाहर है. राज्य सरकार का यह कार्य संविधान के विरुद्ध भी है. जाति गणना के खिलाफ याचिका दायर करने वाले संगठन के वकीलों ने कहा कि जाति आधारित गणना और आर्थिक सर्वेक्षण के लिए प्रकाशित की गयी अधिसूचना को निरस्त किया जाए.क्योंकि राज्य सरकार द्वारा कराया जा रहा यह कार्य उसके अधिकार क्षेत्र के बाहर है. राज्य सरकार का यह कार्य संविधान के विरुद्ध भी है.
विपक्ष के वकीलों द्वारा दिए गए तर्क
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प्रावधानों का हवाला देते हुए कहा गया कि यह कार्य केंद्र सरकार ही करा सकती है.यह केंद्र सरकार की शक्ति के अंतर्गत आता है.
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इस सर्वेक्षण के लिए राज्य सरकार पांच सौ करोड़ रुपये खर्च कर रही है. इस राशि को किस मद में खर्च करेगी, यह नहीं तय हुआ.राज्य सरकार ने छह जून, 2022 को जो अधिसूचना जारी की है उसमें कहा गया है कि जाति आधारित जनगणना के क्रियान्वयन के लिए 500 करोड़ रुपये आकस्मिक निधि से खर्च किया जायेगा , इसके लिए न तो सरकार ने कोई कानून ही बनाया और ना ही रेगुलेशन ही बनाया है . सरकार द्वारा आकस्मिक निधि से जो 500 करोड़ रुपये खर्च करने की बात कही गयी है वह बिहार आकस्मिक निधि एक्ट 1950, बिहार आकस्मिक निधि रूल 1953 के विपरीत है क्योंकि भविष्य निधि आकस्मिक निधि अनफेयर एक्सपेंडिचर के तहत आता है . इसलिए इस फंड से जो खर्च करने की बात कही गयी है वह गैरकानूनी है.
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राज्य सरकार द्वारा दो जून, 2022 को जो निर्णय लिया कि वह भारत के संविधान के विपरीत और सेंसस एक्ट 1948, सेंसस रूल 1990 के विपरीत है .
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सरकार द्वारा जो जाति आधारित गणना की जा रही है इसके लिए किसी प्रकार का न तो कानून ही बनाया गया और न हीं कोई रूल या रेगुलेशन ही बनाया है .
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सरकार द्वारा जिन 17 बिंदुओं पर सूचना इकट्ठा की जा रही है उसमें धर्म, जाति और आर्थिक स्थिति के बारे में भी सूचना इकट्ठा की जा रही है, यह कार्य किसी व्यक्ति की स्वतंत्रता और उसके निजता के विपरीत है. जो भी सूचना उपलब्ध की जा रही है वह भारत के संविधान के विपरीत है, क्योंकि किसी भी व्यक्ति के गोपनीयता को उजागर और सार्वजनिक करना गैरकानूनी है. यह कार्य सुप्रीम कोर्ट के कई आदेशों के विपरीत भी है .इस मामले के लिए जो भी पॉलिसी निर्णय लिया गया उसे गजट प्रकाशन नहीं किया गया है और ना ही इसकी जानकारी आम जनता को ही दी गयी है.
महाधिवक्ता ने सरकार की तरफ से दिए ये तर्क
दूसरी तरफ राज्य सरकार की ओर से महाधिवक्ता द्वारा कोर्ट को बताया गया कि जन कल्याण की योजनाएं बनाने और सामाजिक स्तर में सुधार के लिए यह सर्वेक्षण कराया जा रहा है.
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महाधिवक्ता ने कहा कि दोनों सदन में सर्वसम्मति से प्रस्ताव पारित कर जातीय गणना कराने का निर्णय लिया गया था. कैबिनेट ने उसी के मद्देनजर गणना कराने पर अपनी मुहर लगायी.
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महाधिवक्ता ने कहा कि यह राज्य सरकार का नीतिगत निर्णय है. इसके लिए बजटीय प्रावधान किया गया है. उन्होंने संविधान के अनुच्छेद 37 का हवाला देकर कहा कि राज्य सरकार का यह संवैधानिक दायित्व है कि वह अपने नागरिकों के बारे में जानकारी प्राप्त करे ताकि कल्याणकारी योजनाओं का लाभ उन तक पहुंचाया जा सके.
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राज्य सरकार की ओर से कहा गया कि जाति से कोई भी राज्य अछूता नहीं है. जातियों की जानकारी के लिए पहले भी मुंगेरीलाल कमीशन का गठन हुआ था. मौजूदा समय में जातियों की अहमियत को कोई नकार नहीं सकता है. राज्य सरकार ने साफ नीयत से लोगों को उनकी हिस्सेदारी के हिसाब से लाभ पहुंचाने के उद्देश्य से यह काम शुरू किया है.
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जातीय गणना का पहला चरण समाप्त हो चुका है और दूसरे चरण का अस्सी प्रतिशत काम पूरा हो चुका है और किसी ने भी अपनी शिकायत दर्ज नहीं करायी है. इसलिए इस पर अब रोक लगाने का कोई औचित्य नहीं है.
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सुनवाई के दौरान कोर्ट ने भी महाधिवक्ता से जानना चाहा था कि जब दोनों सदन की सहमति थी तो कानून क्यों नहीं बनाया. इसपर महाधिवक्ता शाही ने कहा कि बगैर कानून बनाये भी राज्य सरकार को नीतिगत निर्णय के तहत गणना कराने का अधिकार है. उन्होंने कहा कि यह एक सर्वे है और किसी को भी जाति बताने के लिए बाध्य नहीं किया जा रहा है. लोग अपने स्वविवेक से इस सर्वे में भाग ले रहे हैं. इसलिए सर्वे कराने की अनुमति दी जाये.