पटना: लालू यादव (Lalu Yadav) के मुख्यमंत्री काल में बिहार में चरवाहा विद्यालय कभी का चर्चा का केंद्र हुआ करता था. एक नारा गूंजा करता था, गाय बकरियां चरती जाए, मुनिया बेटी पढ़ती जाए. राजद के सत्ता से दूर होने पर इन स्कूलों का भविष्य भी अंधेरे में डूब गया था. अब जब तेजस्वी यादव (Tejashwi Yadav) दोबारा बिहार के उप मुख्यमंत्री बने हैं, तो जाहिर है कई नई उम्मीदों ने भी पनपना शुरू कर दिया है. उन्हीं उम्मीदों में से एक है चरवाहा विद्यालय. तेजस्वी के उप मुख्यमंत्री बनने के बाद अब कयास लगाए जा रहे हैं कि लालू के सपनों के इस चरवाहा विद्यालयों के दिन एक बार फिर से बहुरेंगे.
लालू यादव के इस सपनों का यह ऐसा स्कूल था जिसके बाहर गाय, भैंस और बकरी चरते हुए मिलेते थे, तो अंदर उनके चरवाहे बच्चे शिक्षा अर्जित करते हुए. अपने आप में इस तरह का प्रयोग सच में अनोखा था. दलितों, समाज से उपेक्षित और गरीबों के बच्चे को शिक्षा दिलाने का बेहतरीन तरीका चरवाहा विद्यालय था. लालू प्रसाद अपने कार्यकाल में इस प्रयोग को आधार दिए और उनके इस आधार को दुनियाभर ने सराहा. आमतौर पर इस तरह के बच्चों का भविष्य गाय, भैंस के पीछे ही निकल जाता है. छोटे से बड़े होने और फिर बूढ़े होने तक वो गाय, भैंस ही चराते रह जाते हैं, लेकिन बिहार के तत्कालीन मुख्यमंत्री ने इस ओर अपना ध्यान और समय दोनों दिया था.
मुज्जफरपुर के तुर्की में 25 एकड़ में बिहार का नहीं बल्कि देश का पहला चरवाहा विद्यालय ( Charwaha Vidyalaya in Bihar) खुला था. औपचारिक रूप से इसका उद्घाटन 15 जनवरी 1992 में किया गया था. जब ये स्कूल खोला गया तो इसे देखने के लिए लोगों की भीड़ उमड़ पड़ी. सबसे पहले इस स्कूल में 15 लोगों की टीम तैनात की गई. शिक्षक से लेकर इंस्ट्रक्टर तक की तैनाती की गई थी.
चरवाहा विद्यालय सिर्फ देश ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया के लिए एक नया प्रारूप था. इस तरह का पहले किसी ने कुछ सोचा भी नहीं था, आधार देना तो दूर की बात थी. तुर्की में खुले इस विद्यालय को देखने के लिए विदेशों से लोगों की भीड़ पहुंचने लगी. अमेरिका और जापान से कई टीमें इस स्कूल का दौरा की और इसे समझने के साथ साथ इसकी सराहना की थी.
इस स्कूल में वो बच्चे पढ़ते थे, जो घर से गरीब होने के साथ ही गाय, भैंस चराते थे और शिक्षा की तरफ उनकी रूचि बिल्कुल नहीं थी. इस चरवाहा स्कूल चलाने की जिम्मेदारी कृषि, सिंचाई, उद्योग, पशु पालन, ग्रामीण विकास और शिक्षा विभाग पर थी. इसमें पढ़ने वाले बच्चों को मध्याह्न भोजन, दो पोशाक, किताबें और मासिक स्टाइपेंड के तौर पर नौ रुपये मिलते थे. इसके अलावा बच्चों को रोजाना एक रुपये मिलता था लेकिन ये प्रावधान बिहार में सरकारी स्कूल में कक्षा एक से आठ तक पढ़ने वाले सभी छात्रों के लिए था.
चरवाहा विद्यालय राष्ट्रीय जनता दल प्रमुख लालू प्रसाद यादव के बेहद चर्चित प्रयोगों में से एक था. पांच से 15 साल की उम्र के बच्चे जो जानवरों को चराते है, उनको ध्यान में रखकर चरवाहा विद्यालय खोला गया था. ये एक ऐसा प्रयोग था, जिसे यूनीसेफ सहित कई अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं ने सराहा लेकिन बाद में ये फ्लॉप हो गया.
बिहार में सत्ता परिर्वतन के बाद राज्य सरकार की तरफ से इस पर अधिक ध्यान नहीं दिया गया. आगे चलकर कुछ ही सालों में सबसे पहले यहां शिक्षक आना बंद हुए फिर बच्चे. अब तो इस चरवाहा विद्यालय का सिर्फ ढांचा ही बचा है. यहां तक कि लालू यादव के इस प्रयोग को खुद इनकी सरकार ने भी ध्यान नहीं दिया था और बहुत जल्द ही गरीब और दलित बच्चों का भविष्य तय करने वाला ये स्कूल, उनके भविष्य को हमेशा की तरह यूंही अंधेरे में छोड़ गया.
राजनीतिक जानकारों की मानें तो जब स्कूल की थोड़ी प्रशंसा होने लगी तो लालू जी कहने लगे कि वो जल्द ही पहलवान विश्वविद्यालय खोलेंगे, जहां पढ़ाई-लड़ाई साथ साथ होगी. लेकिन सत्ता परिवर्तन और चारा घोटाले में फंसने के बाद लालू के इस सपने के साथ-साथ चरवाहा विद्यालय का भविष्य भी अधर में चला गया था.