पटना. छठ पर्व एक उदाहरण है कि कैसे वैदिक परम्परा की सूर्योपासना और पौराणिक आख्यान में वर्णित स्कन्द भगवान की उपासना एकाकार हो गए. वैदिक संस्कृति में सूर्योपासना के प्रमाण हैं. इस पर्व में मात्र भगवान सूर्य ही नहीं, अपितु उनके पत्नी संज्ञा, भगवान स्कन्द (कार्तिकेय), व उनकी माता व पत्नी के पूजन की भी परम्परा है.
इस संबंध में पत्रकार विजयदेव झा कहते हैं कि छठि आराधना का प्रमाण हमें बारहवीं सदी से मिलना प्रारम्भ हो जाता है, परन्तु इसका यह अर्थ नहीं कि इस पर्व का प्रारम्भ उसी कालखण्ड से हुआ होगा. इसकी जड़ें समय के अनन्त गहराई तक है.
महावीर मंदिर, पटना के प्रकाशन विभाग के प्रमुख पंडित भवनाथ झा कहते हैं कि मिथिला में इसे छठ नहीं छठि पर्व कहते हैं. छठि परमेश्वरी की आराधना करते हैं. आखिर यह छठि परमेश्वरी कौन सी देवी हैं? छठि परमेश्वरी दरअसल षष्ठिका देवी हैं, भगवान स्कन्द की छह माताएँ. कार्तिक शुक्ल षष्ठी को भगवान स्कन्द (कार्तिकेय) अवतरित हुए थे और इसी तिथि को उनकी छह माताओं ने उन्हें दुग्धपान कराकर उनके प्राण की रक्षा की थी.
इसी तिथि को भगवान स्कन्द देवताओं के सेनापति नियुक्त हुए. परंपरानुसार इस तिथि को भगवान स्कन्द, माता षष्ठिका देवी और पत्नी देवसेना की उपासना होती है. धर्मशास्त्र में इसे स्कन्द षष्ठी तथा विवस्वत षष्ठी कहा गया है. भविष्य पुराण में भी कार्तिक शुक्ल षष्ठी तिथि को कार्तिकेय तथा उनकी माता की पूजा का विधान देखने को भी मिलता है.
वहीं विजयदेव झा इस तर्क को आगे ले जाते हुए कहते हैं कि शिशु के जन्म के छठे दिन छठिहार में इन्हीं माता षष्ठिका की पूजा होती है. इस सन्दर्भ में स्कन्द माता षष्ठी व्रत का भी उल्लेख है. तो फिर सूर्योपासना की परम्परा कैसे भगवान स्कंद के आराधना की परम्परा से जा मिली?
इस पर श्री झा कहते हैं कि शास्त्रों में हरेक चन्द्र मास के शुक्ल पक्ष के सप्तमी तिथि के दिन सूर्योपासना का विधान है. इसमें सबसे अधिक प्रशस्त कार्तिक शुक्ल पक्ष सप्तमी को माना गया है. अब चूँकि दोनों ही त्योहार तिथि के अनुसार साथ साथ ही होते हैं दोनों ही त्योहार एकाकार हो गए.
श्री झा कहते हैं कि तेरहवीं सदी में एक प्रसिद्ध विद्वान हेमाद्रि अवतरित हुए थे जिनका प्रसिद्ध ग्रन्थ है चतुर्वग चिन्तामणि. इस ग्रन्थ में हेमाद्रि ने विभिन्न मास में सूर्य के विविध रूप के पूजा का वर्णन और व्यवस्था है. उदाहरण माघ मास में सूर्य के वरुण रूप की पूजा होती है क्रमशः फाल्गुन (सूर्य), चैत्र (अंशुमाली) वैशाख (धाता), ज्येष्ठ (इन्द्र), आषाढ एवं श्रावण (रवि), भाद्र (भग), आश्विन (पर्जन्य), कार्तिक (त्वष्टा), अग्रहण (मित्र) पौष (विष्णु) के रूप में भगवान् सूर्य की पूजा की जाती है.
उपरोक्त वर्णन हेमाद्रि, व्रतखण्ड, अध्याय 11 में देखा जा सकता है. हेमाद्रि यह भी कहते हैं कि जो व्रती वर्ष के हरेक महीने में सूर्य के आराधना का संकल्प रखते हों उन्हें इसका प्रारम्भ कार्तिक शुक्ल सप्तमी की तिथि से करना चाहिए. (वैदिक संस्कृति में कार्तिक मास से ही वर्षा ऋतु का प्रारम्भ होता था)
पंडित झा कहते हैं कि 12 शताब्दी में विद्वान् लक्ष्मीधर हुए, जिनकी प्रसिद्द रचना कृत्यकल्पतरु है. वह तो यह कहते हैं कि कार्तिक मास में भगवान सूर्य कार्तिकेय के नाम से जाने जाते हैं. श्री झा इस संबंध में एक और तथ्य रखते हुए कहते हैं कि चौदहवी सदी में मिथिला के प्रसिद्ध दार्शनिक चण्डेश्वर ने लिखा है की कार्तिक शुक्ल षष्ठी को कार्तिकेय एवं सप्तमी को सूर्य की आराधना करें. उन्होंने व्रत विधान की भी व्याख्या की हुई है.
पंद्रहवी सदी में मिथिला के ही एक अन्य विद्वान रुद्रधर ने प्रतिहारषष्ठी पूजा विधि में छठि पूजा के विधान का वर्णन किया है. यह कहना गलत है की छठि एक लोकपर्व है, जिसके पूजन का कोई विधान नहीं है. रुद्रधर सम्भवः महामहोपाध्याय थे उनके अनुसार इस पर्व की कथा स्कन्दपुराण में वर्णित है.
श्री झा कहते हैं कि इस पर्व में भगवान को भुसवा प्रसाद रूप में अर्पित किया जाता है. लक्ष्मीधर ने अपने ग्रन्थ में इस प्रसाद के बनाने के विधि का वर्णन किया हुआ है. ऐसे में यह कहा जा सकता है कि वैदिक सूर्योपासना एवं पौराणिक आख्यान का संगम है आज का छठि पर्व.
Posted by Ashish Jha