रांची से मिथिला की ओर जानेवाली ट्रेनें बंद हैं, जनप्रतिनिधि क्यों हैं मौन?
रांचीः एक सप्ताह होने को आये. धनबाद-चंद्रपुरा रेल लाइन पर ट्रेनों का परिचालन बंद हुए. इस रूट पर ट्रेनों का परिचालन बंद होने के कारण लोगों को हो रही समस्या का अंदाजा कोई और नहीं लगा सकता. कोई दर्द का एहसास तब तक नहीं कर सकता, जब तक वह खुद पीड़ित न हो. इसी तरह […]
रांचीः एक सप्ताह होने को आये. धनबाद-चंद्रपुरा रेल लाइन पर ट्रेनों का परिचालन बंद हुए. इस रूट पर ट्रेनों का परिचालन बंद होने के कारण लोगों को हो रही समस्या का अंदाजा कोई और नहीं लगा सकता. कोई दर्द का एहसास तब तक नहीं कर सकता, जब तक वह खुद पीड़ित न हो. इसी तरह जिसने जयनगर, मधुबनी, दरभंगा, समस्तीपुर या बरौनी से रांची की यात्रा न की हो, वह इन जगहों की ओर जानेवाले यात्रियों के दर्द का एहसास नहीं कर सकता.
पहली बार एक युवा पत्रकार ने इस दर्द का एहसास किया है. विजय देव झा, जो दरभंगा के रहनेवाले हैं, ने ट्रेन बंद होने के कारण मिथिलावासियों को होनेवाली परेशानी को बयां किया है. उन्होंने जनप्रतिनिधियों की चुप्पी पर गुस्से का भी इजहार किया है.
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विजय देव ने मिथिलांचल की बसों और ट्रेनों में यात्रा करनेवालों का दर्द बयां किया है. उन्होंने फेसबुक पर जो पोस्ट लिखा है, वह बताता है कि समस्या कितनी विकट है. झारखंड और उत्तर प्रदेश के सांसद ने अपने राज्य की ट्रेनों को बदले रूट से चलाने के लिए रेल मंत्रालय को मना लिया, लेकिन मिथिलांचल के सांसद, विधायक मौन हैं. मजबूर हैं. आप भी पढ़िये यह पोस्ट और उस दर्द को महसूस कीजिये, जो रांची में रह कर रोजी-रोटी चलानेवाले मिथिलांचल के लोग और उनके परिजन झेल रहे हैं…
92 वर्ष की एक बूढ़ी महिला को उसका पुत्र और पुत्रबधू रांची की बस में ऐसे ठूंस रहे थे, मानो वह वृद्धा कोई भेड़ या बकरी या कोई बोरी हो. वृद्धा के देह में मांस झुर्रियों में खो गया था. वह कलप रही थी. वह जानती थी कि अगले 12 घंटे की यात्रा उसके लिए खौफनाक होनेवाली थी. बेटा बार-बार समझा रहा था कि सरकार ने रांची जानेवाली सभी ट्रेनें बंद कर दी हैं. दरभंगा से रांची महज चंद बसें ही चलती हैं. उसमें भी टिकट मिलना मुश्किल है. मैं भी टिकट लेने गया था. नहीं ले पाया. लौटते समय कलक्टर कोठी से महज आधे किलोमीटर दूर सड़क में बने गड्ढे में गिर कर चोटिल हो बैठा.
मुझे नहीं पता कि उस वृद्धा ने लोकसभा या विधानसभा चुनाव में किस प्रत्याशी या पार्टी को वोट किया था. लेकिन, यह अनुभव हो रहा है कि मिथिलावासियों ने राजनीतिक दिव्यांगों को चुनना अपनी नियति बना ली है. मिथिला को झारखंड से जोड़नेवाली दो ट्रेनें जयनगर-रांची एक्सप्रेस और दरभंगा-सिकंदराबाद एक्सप्रेस उन ट्रेनों में शामिल हैं, जिसे रेल मंत्रालय ने धनबाद-चंद्रपुरा रेल सेक्शन में भूमिगत आग के आसन्न खतरे की वजह से अनिश्चितकाल के लिए रद्द कर दिया है.
जिस जनप्रतिनिधि की जैसी पहुंच और आत्मबल है, उस हिसाब से उसने अपने इलाके की ट्रेन को परिवर्तित रूट से चलवा लिया. जैसे निशिकांत दुबे और अनंत ओझा ने दम-खम दिखाया. इनके इलाके की ट्रेनें रूट बदल कर चल रही हैं. लेकिन, दरभंगा, मधुबनी और झंझारपुर के बेचारे सांसदों और विधायकों को पता भी नहीं है कि उनके क्षेत्र की ट्रेनें अनिश्चितकाल के लिए रद्द कर दी गयी हैं. अगर पता भी है, तो उनके मुंह से आवाज नहीं निकल रही. विधायकी और सांसदी की इनकी समझ एमपी एमएलए फंड से ऊपर गयी ही नहीं.
दरभंगा के नाॅन-रेजिडेंट सांसद उर्फ जामाता उर्फ दशम ग्रह उर्फ क्रिकेट सम्राट श्रीमान कीर्ति आजाद वित्त मंत्री अरुण जेटली से दिल्ली क्रिकेट क्लब की लड़ाई लड़ रहे हैं. कीर्ति चूंकि दरभंगा में अंतरराष्ट्रीय एयरपोर्ट बनवा चुके हैं, वहां से रोज 100 फ्लाइट देश-विदेश के लिए ‘उड़ान’ भरती हैं. ऐसे में वे रेल मंत्रालय से इन दोनों ट्रेनों को परिवर्तित रूट पर चलाने का मांग कर अपनी इज्जत का बट्टा क्यों लगायें. वह क्रिकेट के लिए लड़ाई लड़ रहे हैं, क्योंकि मिथिला में विश्व स्तर के करीब 100 क्रिकेट स्टेडियम हैं और दरभंगा का हर युवा महेंद्रसिंह झा है. विराट आजाद और युवराज चौधरी है.
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वैसे अजादजी की पत्नी पूनम आजाद से पूछा जाना चाहिए कि हर चुनाव में वह जनता के सामने खुद के दरभंगा की बेटी होने का हवाला देकर अपने पति के वोट बटोरने के लिए आंचल फैलाते वक्त कौन -कौन सा फरेब करती थीं.
मधुबनी के सांसद हुकुमदेव यादव के कान में किसी कस्बाई पत्रकार ने कह दिया है कि मोदी उनको उपराष्ट्रपति के लिए नामित करेंगे. संभवतः कस्बाई पत्रकार को फोन करके मोदी ने ही यह बात बतायी होगी. यादवजी तब से शपथ लेने के लिए माकूल ड्रेस सिलवा रहे हैं. ईश्वर मोदी को सदबुद्धि दें कि वह यादव रूपी बोझ को मधुबनी से उठा कर उपराष्ट्रपति के पद पर दिल्ली में बैठा दें. यह बहुत बड़ा उपकार होगा कि श्रीमान मोदीजी हम मिथिलावासियों पर. कृपया हमें उनसे छुटकारा दिलवा दें.
हमारे सुजीत भाई ने जब हुकुमदेव यादवजी से फोन पर इस मुद्दे को उठाने की गुजारिश की, तो यादवजी की प्रतिक्रिया बेहोश कर देने लायक थी. बोले, मामला पेचीदा और कानूनी है, जिसमें वह कुछ नहीं कर सकते. इसमें रेलवे ही कुछ कर सकता है, वह कुछ नहीं कर सकते. बाद में उन्होंने कहा कि वह रेल के लीलाधारी देवता सुरेश प्रभु से बात करेंगे. आप समझ सकते हैं कि यादवजी ने कोई बात भी की होगी.
मेरी अनुपस्थिति में उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ दरभंगा आये थे. कह कर गये कि वह बिहार को गोद लेंगे. योगीजी पहले आपकी पार्टी के सांसद विधायक क्षेत्र को गोद ले लें. बहरहाल, किसी ने मुझे दिल को छू लेनेवाला करुण वीडियो भेजा था, जिसमें दरभंगा के ऊर्जावान विधायक संजय सरावगीजी योगी के आगमन से एक दिन पहले तूफान में गिरे पंडाल की मरम्मत खुद ही कर रहे हैं. मैं इस विषय पर कुछ नहीं लिखूंगा कि दरभंगा रूपी नर्क का बेड़ा गर्क करने में जनप्रतिनिधियों का क्या योगदान रहा है. सरावगीजी की खासियत है कि वह आपके घर में छठी, मुंडन, जनेऊ, विवाह में भी हाजिर हो जाते हैं. लेकिन, सरावगीजी ने भी ट्रेन का मुद्दा उठाने की जहमत नहीं उठायी.
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हायाघाट से जद यू विधायक हैं श्री अमरनाथ गामीजी. आरएसएस से शुरुआत की और सीधे नीतीश कुमारजी की गोद में धम्म से गिरे और सेकुलर हो गये. महोदय, दिन भर फेसबुक पर जनसंपर्क करते रहते हैं. नीतीश-नीतीश करते जुबान नहीं दुखती. साथ ही नरेन्द्र मोदी की मजम्मत करनेवाला पोस्ट और चुटकुला भी पोस्ट करते रहते हैं. राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर से कम कुछ सोचते ही नहीं. सो समझ लीजिए कि कितने मजाकिया हैं. जब मैंने उनसे पूछा कि क्या आपने ट्रेनवाले मुद्दे पर कोई पहल की, तो इनका टका-सा जबाब होता है, मैं छोटा आदमी हूं. मुझसे हल्की-फुल्की बात कीजिये. जाइये, अच्छे दिनवाले पार्टी के जनप्रतिनिधि के पास, आप अपने विचार मत थोपिये.
जन प्रतिनिधि न हुए, भगवान हो गये. किसी प्राइवेट कंपनी के सीइओ हो गये. संक्षेप में कहें, तो हमारे दिव्यांग प्रतिनिधि अपनी दुनिया में जी रहे हैं. जो कुछ भी आवाज उठी, वह झारखंड से ही उठी. यहां जनप्रतिनिधियों ने रेल मंत्री के सामने इस समस्या को उठाया. मेरे जैसे लाखों लोगों को नहीं पता कि ये ट्रेनें अब कभी चलेंगी भी या नहीं.
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मेरे मां-बाबूजी को भी मेरे साथ रांची आना था, लेकिन मैं अपने माता-पिता को बस में कोंच कर उनके प्राण हरने का साहस नहीं कर सका. मुझे भी रोजी-रोटी के लिए रांची जाना है. मैं खुद को मानसिक और शारीरिक रूप से कष्टदायी यात्रा के लिए तैयार कर रहा हूं.
तकलीफ सहना, उपेक्षित रहना हम मैथिलों के जीन में है. न कोई आवाज, न कोई आंदोलन, न ही कोई घेराव. सिवाय रांची के एक संगठन को छोड़ कर. यह संभवतः दशकों की राजनीतिक उपेक्षा का परिणाम है. मैथिली में एक कहावत है, ‘हेहरा रे हेहरा, केना रहै छैं, लात जूता खाई छी, भने रहैत छी’. (अरे बेशर्म, क्या हाल है. लात जूता खाता हूं, मजे से रहता हूं). Hello shameless, how do you do, getting kick on my ass I enjoy.
मैथिल इस मुहावरे के उपयुक्त पात्र हैं. जो अगर मिथिलावासियों का नसीब फूटा है, तो इसके जिम्मेदार हम ही हैं. किसी को भी पवित्र पाग पहना कर मिथिला का उद्धारक घोषित कर दिया. और अगर अटल बिहारी वाजपेयी जैसे किसी ने मैथिलों का भला किया, तो मैथिलों ने बदले में वो किया कि नेताओं को समझ में आ गया कि ये लोग लतियाये जाने पर ही खुश रहते हैं.
मैं उन थेथर, हेहर मैथिल में से नहीं हूं. मैं बोलता रहूंगा, लिखता रहूंगा. मुझे किसी से डर नहीं लगता.