अपनों को खोने वाले सालों से कर रहे तारणहार का इंतजार

थलही से शैलेंद्र अपने महलों से कभी, आप भी निकल कर देख लें. जिंदगी कितनी परेशान है, यह घर-घर देख लें. आहों की अब्र, अश्कों की बरसात देख लें. कभी फुरसत मिले तो आ, हम गरीब गांव वालों की दिन-रात देख लें..सीतामढ़ी के पुपरी इलाके के तेमहुआ गांव की थलही व बिरती (दोनों मुशहर टोला) […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | December 9, 2014 11:34 AM
थलही से शैलेंद्र
अपने महलों से कभी, आप भी निकल कर देख लें. जिंदगी कितनी परेशान है, यह घर-घर देख लें. आहों की अब्र, अश्कों की बरसात देख लें. कभी फुरसत मिले तो आ, हम गरीब गांव वालों की दिन-रात देख लें..सीतामढ़ी के पुपरी इलाके के तेमहुआ गांव की थलही व बिरती (दोनों मुशहर टोला) बस्ती से निकलते समय इन लाइनों से लिखा पत्र दिलीप-अरुण (दोनों सगे भाई) ने मुङो दिया. हालांकि तब तक मैं दोनों बस्तियों की हकीकत देख चुका था. इसमें दिन भी शामिल है और रात भी. क्योंकि जिस समय मैं इन बस्तियों में पहुंचा, सूरज डूबने की तैयारी कर रहा था.
गुलाबी ठंडक के बीच रात का अंधेरा पूरे जहाने को अपने आगोश में लेने को बेताब था. तीन घंटे तक दोनों बस्तियों में रहने के दौरान जो अहसास हुआ, वैसी स्थिति अभी तक मैंने अपनी जिंदगी में किसी और बस्ती की नहीं देखी.
थलही व बिरती बस्ती के कालाजार पीड़ितों के लिए हक की आवाज बुलंद कर रहे दिलीप-अरुण से पुपरी में ही मुलाकात हो गयी. इस दौरान दोनों ने अपने उस संघर्ष के बारे में बताया, जो दोनों भाई पिछले दस साल से कर रहे हैं. दिल्ली में डेरा डालने से लेकर राष्ट्रपति के नाम रोज लिखी जानेवाली चिट्ठी तक के बारे में बताया. कैसे इसकी शुरुआत हुई. पूछने पर कहने लगे- जिन लोगों के हाथों में खेल कर हमारा बचपन कटा, जो हमारे खेतों में काम करते थे. उनको हम दोनों भाइयों ने तिल-तिल कर मरते देखा. 2003 में शुरू कालाजार की तबाही का आलम ये था कि एक चिता की आग शांत नहीं होती थी, दूसरी चिता की तैयारी शुरू हो जाती थी. ये स्थिति हम दोनों भाइयों से देखी नहीं गयी. पहले हमको लगता था कि हमारी आवाज जल्दी सुनी जायेगी. हम लोगों ने स्थानीय स्तर पर अधिकारियों से मिलना शुरू किया, लेकिन उनकी तरफ से कोई आश्वासन तक नहीं मिल रहा था. इलाज का सही इंतजाम तक नहीं था.
इसी बीच हमारे मन में ये विचार आया, क्यों न हम इन लोगों की आवाज देश के सर्वोच्च पद पर आसीन राष्ट्रपति महोदय तक पहुंचायें. तब हमें लगता था कि जल्दी ही हमारी मुलाकात राष्ट्रपति महोदय से हो जायेगी. इसके लिए हम ट्रेन से दिल्ली पहुंच गये. राष्ट्रपति भवन पहुंचे, तो वहां कहा गया कि ऐसे मुलाकात नहीं होती है. आपको पहले अर्जी लगानी होगी. तब राष्ट्रपति की ओर से मिलने का समय दिया जायेगा. हम लोगों ने अर्जी लगा दी. मुलाकात के समय का इंतजार करने लगे.
दिन पर दिन बीतते जा रहे थे, लेकिन मुलाकात नहीं हो रही थी. कई दिन बीत गये, तो हम फिर से राष्ट्रपति भवन पहुंचे. वहां बताया गया, आप लोग वापस अपने गांव चले जाइये, जब आपके पास सूचना जायेगी, तब मिलने के लिए दिल्ली आ जाइयेगा, लेकिन तब हम सही नहीं थे, क्योंकि हमारे इंतजार को अब दस साल बीत चुके हैं. देश में राष्ट्रपति बदल चुके हैं.
हम अब तक राष्ट्रपति से मिलने के लिए 36 सौ से ज्यादा पत्र लिख चुके हैं. वहां से उत्तर केवल तीन बार मिला है. हर बार यही लिखा जाता है कि राष्ट्रपति व्यस्त हैं. आपसे मुलाकात नहीं कर सकते हैं, लेकिन हमने ठान रखी है, जब तक मुलाकात नहीं होती है, तब तक हम लोग चुप नहीं बैठेंगे. रोज देश के संवैधानिक प्रमुख को पत्र लिख कर अपने गांव की दोनों बस्तियों के बारे में आवाज बुलंद करते रहेंगे. गांव के मुखिया संतोष कुमार कहते हैं, पिछले दो सालों से हालत ठीक है. इससे पहले की स्थिति बहुत खराब थी.
आप अधिकारियों की बात ही मत करिये. उन लोगों ने हाथ खड़ा कर दिया था. हम लोग कालाजार से पीड़ित लोगों को नेपाल के जलेश्वर में लेकर जाते थे. वहां उन्हें गलत नाम व पता पर भर्ती कराते थे, तब जाकर इलाज होता था. अगर वहां के अधिकारी ये जान जाते थे कि हम लोग भारतीय हैं, तो मारपीट की जाती थी. इलाज भी बंद कर दिया जाता था. संबंधों का इस्तेमाल करके हम लोग किसी तरह से बीमार लोगों का इलाज कराते थे. वहां पर कालाजार का मुफ्त में इलाज होता है, अपने यहां इलाज में हजारों खर्च करने पड़ते थे, तब भी ठीक होने की गारंटी नहीं थी.
बातचीत के बीच हम थलही बस्ती में दाखिल होते हैं. सबसे पहले बरगद का वो पेड़ मिलता है, जहां इस बस्ती के लोग बैठ कर आपस में विचार विमर्श करते हैं. इससे चंद कदम दूर आग ताप रहे लोगों से मुलाकात होती है. इनमें कारी सदा सबसे पहले बोल पड़ते हैं, उस साल (2004) में हाल बेहाल था. हमारे परिवार में एक व्यक्ति ठीक होता, तो दूसरे को कालाजार हो जाता था. कारी सदा ने कालाजार से अपना बेटा खोया.
जुगुनी देवी कहती है, हमारे दोनों बच्चों की मौत कालाजार से हो गयी. बच्चू सदा 12 साल का था, तो कांतू की उम्र दस साल थी. इसके बाद को अपनी व्यथा सुनानेवालों का तांता लग गया. कोई कहता मेरा नाम लिख लीजिये, हमारी बात सरकार तक पहुंचा दीजिये, तो कोई कहता मेरी.
कुछ ही देर में दर्जनों लोग मौके पर इकट्ठा हो गये. इन सभी लोगों का कहना था, तब प्रशासन ने हाथ खड़ा कर दिया था. रोहित सदा भाग्यशाली थे, जिनको कालाजार हुअ, इलाज की वजह से बच गये. कहते हैं, तब हमारी मां का इलाज दरभंगा में चल रहा था. हम उसी में लगे थे. इसी बीच हमको भी बुखार होने लगा. हमारा इलाज पुपरी में हुआ. महीनों लग गये, लेकिन हमारी हालत सुधर गयी. पूजा देवी कहती हैं, हमारे दोनों बच्चों को भी कालाजार हो गया था, लेकिन भगवान की कृपा से बच गये. हमने दोनों का इलाज नेपाल के जलेश्वर में कराया था.
थलही बस्ती में रह रहे मुशहर परिवारों की आर्थिक स्थिति काफी खराब है. ज्यादातर घर झोपड़ी के हैं. आठ बाइ दस या इससे कुछ बड़ी झोपड़ियों में ही इनका सारा संसार सिमटा है. इसी में ये रहते हैं, खाना बनाते हैं.
सामान रखते हैं और सोते हैं. इन लोगों का गुजारा कैसे होता होगा. इसका अंदाजा सहज लगाया जा सकता है. दिलीप कहते हैं, हमारी कोशिश इसी स्थिति को बदलने की है. कोई चाहे जो कहे, हम चाहते हैं, यहां के लोगों का जीवन स्तर सुधरे. गांव में एक साल पहले बिजली आयी. इसकी वजह से उन वीरान झोपड़ियों में भी उजाला हुआ, जो दशकों से अंधेरे में डूबी थीं, लेकिन परेशानी ये है कि यहां ज्यादा देर बिजली नहीं रहती. उसकी आंख-मिचौनी चलती रहती है.

Next Article

Exit mobile version