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भूकंप का कहर : जलती लाशों के बीच रात गुजारी

कमलेश ठाकुर, हथुआ, दरभंगा हाथ में चाकू लिये दुकान से भागा. क्वार्टर के सामने खड़ी हो पत्नी और बच्चों को बुलाने के लिए चिल्लाता रहा. गिरती-पड़ती पत्नी पहले तल्ले से तीन बच्चों के साथ नीचे आयी. न दुकान बंद कर पाया, न आधी बनी दाढ़ी को पूरा किया और न ही पैसे लिये. सपरिवार भागने […]

कमलेश ठाकुर, हथुआ, दरभंगा

हाथ में चाकू लिये दुकान से भागा. क्वार्टर के सामने खड़ी हो पत्नी और बच्चों को बुलाने के लिए चिल्लाता रहा. गिरती-पड़ती पत्नी पहले तल्ले से तीन बच्चों के साथ नीचे आयी. न दुकान बंद कर पाया, न आधी बनी दाढ़ी को पूरा किया और न ही पैसे लिये. सपरिवार भागने लगे. पत्नी को बहुत चोटें आयीं, लेकिन रुका तो बागमती के किनारे. शहर के ऊपर आसमान में धूल ऐसे उड़ रहे थे, जैसे पूरे शहर में आग लगी हो.

दुकान के बगल में ही किराये के मकान में रहता था. दो पुत्र एवं पुत्री सहित पत्नी पूनम देवी के साथ. बिस्कुट और सेव खा कर काम चलाया था. बागमती के किनारे फल की मंडी है. भूखे बिलबिलाते बच्चों का दर्द देखते हुए मंडी पहुंचा, तो मुफ्त में फल मिल गया. वह फल हमारे बच्चों के लिए अमृत के समान था. शनिवार की शाम से नदी किनारे लोग शवों को जलाने के लिए आने लगे. किनारे पर रहने के लिए जगह नहीं थी. चारों तरफ लाशें जल रही थीं. लाशों के बीच में फलों के कार्टन को बिछा कर हमने रात गुजारी. इस बीच बारिश भी शुरू हो गयी. लाशें नहीं जल पा रही थीं. चारों ओर चीत्कार ही चीत्कार सुनायी दे रहा था. अगले दिन कलंकी पहुंचे, जहां से बसें मिलती हैं. वहां बस चालक 700 के बदले 3000 रुपये मांग रहा था. पैसे पास में नहीं थे. सब दुकान में रह गया था.

बांस की तरह डोल रही थीं बिल्डिंगें

रंजीत कुमार, बरवा मुरली, घोड़ासहन

भगवान विष्णु के मंदिर की सीढ़ियां चढ़ रहा था कि पैर फिसल गया और नीचे चला गया. खड़ा होने की सोच ही रहा था कि देखा हजारों लोग भाग रहे थे. मैं भी भागने लगा, हालांकि समझ नहीं आ रहा था क्या हुआ है? भीड़ में महिलाएं गोद में बच्चे लिए गिरते-पड़ते भाग रही थीं. बड़े और मजबूत मकान बांस की तरह डोल रहे थे. लगता था कि अब शरीर पर आकर गिर जायेंगे. गिरते घरों से चीत्कार उठ रही थी.

कुदरत का कहर और इनसान की लूट साथ-साथ

अशोक तिवारी, रघुनाथपुर, रक्सौल

मैं अपनी टीम में मुसहर जाति के 26 लोगों के साथ गोरखा जिले के हिरकली में ईंट उद्योग में काम करता था. भूकंप के बाद हमलोग इतने भयभीत हो गये थे कि जल्द से जल्द अपने देश लौटना चाहते थे, लेकिन ईंट उद्योग का मालिक आने नहीं दे रहा था. आरजू विनती की कि पैसा रख लीजिए, मजदूरी नहीं दीजिए, पर घर तो जाने दीजिए. हम लोग फिर आयेंगे और काम करेंगे. लेकिन मालिक मानने को तैयार नहीं था. जैसे-तैसे दो लोग भागने में सफल हुए और गोरखा शहर पहुंचे. यहां का माहौल काफी डरावना था. रविवार तक कई लाशें पड़ी थीं. बार-बार भूकंप के झटके आने की वजह से लोग किसी की मदद के लिए नहीं निकल पा रहे थे. हमें दो जगह लोगों ने खाने के लिए दिया. बस से वीरगंज आने की कोशिश की. 300 के बदले 500 रुपये किराया भी चुकाया. मुगलिम से पहले पहाड़ों के बीच बस रोक दी गयी और गाली-गलौज करने लगे. विरोध करने पर उन लोगों ने पीटा भी. लाख विनती के बाद बस वाला वीरगंज लाने के लिए तैयार हुआ. उन लोगों ने जेब की तलाशी लेकर 500 रुपये बचा था वह भी निकाल लिया.

घर मलबे में बदला देखा तो जान निकल गयी

मो. अब्दुल्लाह, नरैनापुर

मैं नेपाल में बढ़ई का काम करता था. 25 अप्रैल को चार मंजिली इमारत में काम कर रहा था. तभी जोर से जोर से आवाजें आने लगी. तड़तड़ घड़धड़ की आवाज आ रही थी. लोग घर से निकल कर भाग रहे थे. मैं भी भागा. वहां से करीब 2 किलोमीटर की दूरी पर मेरी बीवी और बच्चे थे. जब अपने किराये के मकान के पास पहुंचा तो देखा पूरा घर मलवा में बदल गया है. देखकर मैं जोर-जोर से रोने लगा. तभी मेरी पत्नी मजीना आ गयी, बोली, उधर चलिए, यहां खतरा है. हम सभी सुरक्षित हैं. बच्चे भी वहीं हैं. पत्नी और बच्चे को सुरक्षित देख कर मेरी जान में जान आयी. सारी रात हमने ठमेल के एक विद्यालय परिसर में खुले आसमान के नीचे गुजारी. वहां खाने पीने का कोई इंतजाम नही था. तीनों बच्चे भूख से तड़प रहे थे. 26 अप्रैल को जैसे-तैसे काठमांडू स्थित एयरपोर्ट पहुंचा.

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