मिथिला की संस्कृति के सवर्द्धन को रेलवे गंभीर नहीं
दरभंगा : स्कृति के प्रचार-प्रसार में रेलवे की बड़ी भूमिका रही है. देश के विभिन्न हिस्सों की संस्कृति की झलक रेलवे दिखाती रहती है. स्थान विशेष की कलाकृतियों के माध्यम से या फिर लिपि के सहारे. इस नजरिये से समस्तीपुर रेल मंडल मिथिला की संस्कृति के साथ दोयेम दर्जे का व्यवहार करता है. लगता है […]
दरभंगा : स्कृति के प्रचार-प्रसार में रेलवे की बड़ी भूमिका रही है. देश के विभिन्न हिस्सों की संस्कृति की झलक रेलवे दिखाती रहती है. स्थान विशेष की कलाकृतियों के माध्यम से या फिर लिपि के सहारे. इस नजरिये से समस्तीपुर रेल मंडल मिथिला की संस्कृति के साथ दोयेम दर्जे का व्यवहार करता है. लगता है जानबूझकर मंडल के अधिकारियों ने हाशिये पर डाल रखा है. नयी पहल तो प्रशासन की ओर से नहीं ही हो रही है, उल्टे पुराने प्रतीकों को भी गायब कर दिया है.
इससे मिथिलावासियों में रोष है. उल्लेखनीय है कि देश की सबसे प्राचीनतम व समृद्ध साहित्यों में मैथिली अग्रणी है. इसे संवैधानिक दर्जा मिले भी एक दशक से उपर का समय बीत चुका है, लेकिन रेलवे की ओर से इस भाषा के संवर्द्धन के लिए आज तक मजबूत पहल नहीं की गयी है. सनद रहे कि 22 दिसम्बर 2002 को तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के सार्थक समर्थन से इस भाषा को अष्टम अनुसूची में शामिल होने का गौरव लोकसभा ने प्रदान कर दिया था.
इसके बाद भी रेल महकमा की ओर से तवज्जो नहीं दी गयी. हैरत की बात तो यह रही कि जब तत्कालीन डीआरएम कुंदन चौधरी से उस समय साहित्यिक-सांस्कृतिक विचार मंच ऋचालोक की ओर मांग उठायी गयी तो इसे उन्होंने सिरे से खारिज ही कर दिया था. जब उन्हें संवैधानिक भाषा होने की जानकारी दी गयी तो जंकशन के प्लेटफॉर्म एक पर बने पट्ट पर मिथिला पेटिंग करवा दी. ज्ञातव्य हो कि पहले यह पट्ट जंकशन के बाहरी परिसर में यह लगा था.
उस समय चालू हुए यूटीएस काउंटर के कारण इसे हटा दिया गया था. इस बीच संस्था के अमलेन्दु शेखर पाठक लगातार प्रयास करते रहे. इसमें रेलवे के एक कर्मी आरपी झा का भी सराहनीय सहयोग रहा. अंतत: तत्कालीन सीनियर डीसीएम जफर आजम के सत्प्रयास से जंकशन पर पहली बार मिथिलाक्षर में बोर्ड लटका. इतना ही नहीं, जगह-जगह इस लिपि में भी जंकशन का नाम अंकित किया गया. इसके बाद मैथिली में नियमित उद्घोषणा का भी प्रबंध किया गया.
इधर बने दो पट्ट से पेटिंग गायब हो गये. मिथिलाक्षर में अंकित जंकशन का नाम भी मिटता चला गया. ट्रेनों पर मिथिलाक्षर में बोर्ड तो नहीं ही लटकाया गया, पुरानी व्यवस्था को भी सहेजकर नहीं रखा गया. हलांकि यह भी निराशाजन है कि इस मुद्दे को लेकर आपस में चर्चा करने तथा मीडिया में बयान छपवाने के सिवा कभी अपनी भावना से ऐसे लोग प्रशासन को अवगत नहीं करा रहे. पहलकदमी के बाद ऋचालोक की ओर से भी इस दिशा में परिणामदायी पहल नहीं की गयी.