मशीनी युग में जांता व सिलबट्टा की बिक्री में कमी, बावजूद बिक गये डेढ़ सौ अधिक पत्थर के सामान
पत्थर की हाथ से चलने वाली आंटा चक्की, सिलौटी व लोढ़ा भले ही अब चलन से दूर हो गए हों, लेकिन अहल्यास्थान रामनवमी मेले में इस बार भी दुकानें सजी हैं.
कमतौल. पत्थर की हाथ से चलने वाली आंटा चक्की, सिलौटी व लोढ़ा भले ही अब चलन से दूर हो गए हों, लेकिन अहल्यास्थान रामनवमी मेले में इस बार भी दुकानें सजी हैं. इनकी बिक्री तो कम हो रही है, किंतु नयी पीढ़ी इस पुराने संसाधनों से रू-ब-रू जरूर हो रही है. उमेश कंजर व संतोष कंजर वर्षों से अहल्यास्थान रामनवमी मेले में पत्थर के सामान बेचने आते हैं. हाथ से चलाने वाला जांता, सिलौटी व लोढ़ा आदि की दुकान सजाते हैं. इस साल उनकी बिक्री कम होने से चेहरे पर उदासी के भाव हैं. दुकानदार भी मानते हैं कि अब मिक्सर ग्राइंडर व विद्युत चालित आटा चक्कियों के आगे पत्थर का जांता, सिलबट्टा, लोढ़ा आदि का महत्व कम हो गया है. दुकानदार संतोष कंजर ने बताया कि यह हमारा पुश्तैनी धंधा है. दादा, परदादा के जमाने से हमलोग पत्थर तोड़कर जांता, सिलबट्टा, लोढ़ा आदि बनाकर मेला व बाजारों में बेचते हैं. अब इसकी बिक्री शहरों में तो नहीं के बराबर होती है, ग्रामीण क्षेत्रों में थोड़ी बहुत बिक्री हो जाती है. बताया कि गत वर्ष की अपेक्षा इस वर्ष बहुत कम बिक्री हुई है. ऐसे में इस पुश्तैनी धंधे से अब परिवार चलाना मुश्किल हो गया है. लगता है कि अब इस पुश्तैनी धंधे को छोड़कर मजदूरी या अन्य कोई काम करना पड़ेगा, तभी परिवार का भरण-पोषण संभव हो पाएगा. उमेश कंजर ने बताया कि मेले के दौरान जांता की कीमत कम से कम पांच सौ रुपए और सिलबट्टा व लोढ़ा की कीमत कम से कम दो सौ रुपए होती है. साइज के हिसाब से कीमत बढ़ती जाती है. सात दिन से अहल्यास्थान मेले में दुकान लगा रखी है. दोनों दुकान से करीब डेढ़ सौ जांता और इतनी ही संख्या में सिलबट्टा व लोढ़ा की बिक्री हुई है. मेले में सुबह व शाम को ग्राहक पहुंचते हैं. इससे कुछ और बिक्री होने की उम्मीद है. बताया कि गत वर्ष पांच सौ से अधिक जांता, सिलबट्टा व लोढा की बिक्री हुई थी. आधी बिक्री रामनवमी के दिन ही हो जाती थी, इस वर्ष स्थिति उल्टी है. भीड़ नहीं होने के कारण रामनवमी के दिन ही कम बिक्री हुई.