दरभंगा. सुदूर कुशेश्वरस्थान के जुरौना निवासी छबीला कापड़ि की उम्र 85 साल हो गयी है. बड़ा बेटा राम मानसिक रूप से बीमार है. बहू फुलवन गांव की है. गांव में उसे फुलवनवाली के नाम से पुकारा जाता है. तीन बेटी व एक बेटे की मां फुलवनवाली पहले गांव में ही रहती थी. दुल्हन होने के बावजूद परिवार के हालात को देखकर मजदूरी किया करती थी. कुछ आंगन में बर्तन मांज कर किसी तरह दो जून की रोटी का जुगाड़ कर पाती थी. लगातार महाजन का कर्ज बढ़ता जा रहा था. अंतत: उसके मायके के एक रिश्तेदार ने उसे दिल्ली चलने की सलाह दी. करीब दो साल पहले वह दिल्ली चली गयी. इन दिनों पड़ोस में हो रही एक शादी में सम्मिलित होने के लिए वह आयी है. फुलवनवाली कहती है- भैया, यहां जब तक रहे कर्ज में डूबे रहे. महाजनों की खरी-खोटी नित्य सुननी पड़ती थी. जब से दिल्ली गये हैं, महाजनों का कर्जा चुका दिया है. दूसरी बेटी की शादी के लिए पैसे भी जमा कर रही हूं. प्रत्येक महीना घर पर ससुर को पैसा भेजती हूं. यहां काम नहीं मिलता था. जो कुछ काम मिलता भी था तो पैसे इतने कम मिलते थे कि किसी तरह दोनों वक्त चूल्हा जल जाता था. दिल्ली में यहां से कम मेहनत में ही प्रति माह 15 से 20 हजार रुपए कमा लेती हूं. यहां की तरह काम कराने के बाद वहां के लोग पैसे के लिए किचकिच भी नहीं करते. आप ही बताइए यहां रहकर कर्ज में डूबे रहें या बाहर जाकर निश्चिंत से जीवन बितायें? यह किसी एक फुलवनवाली की कहानी नहीं है, आर्थिक रूप से कमजोर प्राय: प्रत्येक परिवार के लोगों की कुछ ऐसी ही कहानी है. दरअसल, मिथिला की हृदय स्थली कहा जानेवाला यह क्षेत्र प्राकृतिक आपदा से जूझता रहा है. बाढ़-सुखाड़ के साथ अगलगी भीषण समस्या है, जो प्राय: प्रतिवर्ष कहर बनकर टूटती है. लिहाजा लोगों को यहां काम नहीं मिलता. जिला की 70 से 80 प्रतिशत आबादी खेती पर निर्भर है, परंतु सच्चाई यह भी है कि प्राय: एक भी किसान व्यावसायिक रूप में खेती नहीं करते. स्वभाविक रूप से खेतिहर मजदूरों को सालों भर काम नहीं मिल पाता, लिहाजा रोजी-रोटी के लिए उन्हें यहां से पलायन करना पड़ता है. इससे केवल आर्थिक रूप से सबसे कमजोर वर्ग के लोग ही प्रभावित नहीं हैं, बल्कि निम्न मध्यमवर्गीय परिवार के लोगों को भी रोजी की समस्या का यहां सामना करना पड़ता है. स्थानीय स्तर पर रोजगार के समुचित साधन नहीं है. यही कारण है कि जिला का शायद ही कोई ऐसा परिवार होगा जिसके एक सदस्य को भी रोटी के लिए यहां से पलायन नहीं करना पड़ा हो. अब तो महिलाएं भी इसमें शरीक होने लगी हैं. यहां से दो तरह के पलायन होते हैं. एक स्थायी व दूसरा मौसमी. स्थायी पलायन में यहां के लोग परदेस में किसी न किसी किसान, फैक्ट्री, प्रतिष्ठान या कहीं अन्य स्थायी रूप से कर्मी के रूप में काम करते हैं. वहीं मौसमी पलायन साल में छह बार होता है. धान की दो बार रोपनी एवं दो बार कटनी के लिए तथा एक बार गेहूं की बोआई तथा एक बार गेहूं की कटनी के लिए मेट के माध्यम से यहां के मजदूर दिल्ली, पंजाब, हरियाणा जाते हैं. यहां के कामकाजी लोग यूं तो प्राय: पूरे देश में फैले हैं, लेकिन मजदूर तबके का सर्वाधिक पलायन दिल्ली, पंजाब व हरियाणा के लिए होता है. कुछ लोग रोजी-रोटी के लिए उत्तरप्रदेश व मुंबई का भी रुख करते हैं. सुदूर देहात में अधिकांश पुरुष दूसरे प्रदेश पलायन कर जाते हैं. घर पर बच्चों के साथ अकेली महिला रह जाती है, जिनके सिर पर पूरे परिवार का बोझ रहता है. बीमारी से लेकर घर का राशन-पानी का प्रबंध, सामाजिक दायित्वों का निर्वहन, एक जगह से दूसरे जगह की यात्रा आदि में भारी परेशानी होती है. हालांकि जिनके घर के सदस्य परदेस रहते हैं, उनके घर की माली हालत में उत्तरोत्तर सुधार भी हो रहा है. बेनीपुर के चौगमा निवासी सुटकुन मांझी कहते हैं- बेटा भी साथ में वहां काम करता है. ताउम्र साइकिल नहीं खरीद सका. उसने तो एक लाख की मोटरसाइकिल ले ली है. घर भी बनवा रहा है. अभी छत नहीं ढाल पायेंगे, ऊपर में एस्बेस्टस डाल कर काम चलायेंगे. कुछ पैसे जमा हो जायेंगे तो छत भी ढलवा लेंगे. बाहर कमाने से पैसा बचता है, कारण वहां अधिक मजदूरी मिलती है. यहां से मजदूरों का पलायन वैसे सालों भर होता रहता है. इसकी झलक अमृतसर जानेवाली जननायक एक्स्रपेस, शहीद एक्सप्रेस, सरयू यमुना एक्सप्रेस के अलावा मुंबई जानेवाली पवन व कर्मभूमि एक्सप्रेस में नित्य मिलती है. मंगलवार को दरभंगा जंक्शन पर मुंबई जानेवाली पवन एक्सप्रेस के इंतजार में बैठे तीन मजदूर तबके के यात्री पैकटोल के राजवीर मुखिया, धर्मेश मुखिया व सोनेलाल मुखिया ने बताया कि लगन में आये थे, वापस काम पर जा रहे हैं. यहां काम कहां है? मनरेगा में जॉब कार्ड तो बना हुआ है, लेकिन जी-हजूरी करने के बाद भी सालों भर काम नहीं मिल पाता. वहां एक किसान के यहां हम तीनों खेती-बारी का काम करते हैं. कोई हुनर अलग से है नहीं, तो क्या करें? मजदूर दिवस के बाबत चर्चा करने पर छूटते ही कहते हैं- जिस दिन काम नहीं मिला, हम लोगों के लिए वही मजदूर दिवस होता है.
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