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जहां लगा रहता था अध्येता-मनीषियों का जमघट, वहां की वर्त्तमान दशा करती निराश

मिथिला संस्कृत शोध संस्थान के स्थापना दिवस पर संस्थान के सभागार में संगोष्ठी का आयोजन किया.

दरभंगा. मिथिला संस्कृत शोध संस्थान के स्थापना दिवस पर संस्थान के सभागार में संगोष्ठी का आयोजन किया. उद्घाटन करते हुए पूर्व हिंदी विभागाध्यक्ष प्रो. प्रभाकर पाठक ने कहा कि 1972 में जब इस संस्थान के परिसर में प्रवेश करता था, तो भयाक्रांत हो जाता था कि पता नहीं किस से शास्त्रार्थ हो जाए. चारों तरफ अध्येता-मनीषी दिखते थे. यह तपोभूमि रही है. सारस्वत प्रदेश रहा है लेकिन आज की दशा निराश करती है. आशा है कि अपने 75वें स्थापना दिवस पर संस्थान अपने स्वर्णिम इतिहास को दोहराएगा. लनामवि के राजनीति विज्ञान विभागाध्यक्ष प्रो. मुनेश्वर यादव ने कहा कि यह निजीकरण का दौर है. इस संस्थान जैसे सभी पब्लिक फंडेड संस्थानों की दुर्दशा के पीछे यही कारण है. हिंदी विभागाध्यक्ष प्रो. उमेश कुमार ने कहा कि साहित्य, कला और संस्कृति की जितनी पांडुलिपियां यहां हैं, उतनी बड़ी मात्रा में बिहार के किसी संस्थान में नहीं हैं. सदियों की मेधा का निचोड़ हमारे पास उपलब्ध है, लेकिन हम उसका उपयोग नहीं कर पा रहे हैं. यह संस्थान व समाज की क्षति है. अध्यक्षता करते हुए संस्थान के निदेशक डॉ सुरेंद्र प्रसाद सुमन ने कहा कि आज यह विचार करना होगा कि इन 73 वर्षों में उन स्वप्नों का क्या हुआ जिनके साथ संस्थान की नींव रखी गयी थी. इस प्रश्न से जूझे बगैर संस्थान की उन्नति संभव नहीं है. वहीं संस्थान के पूर्व निदेशक देवनारायण यादव, एलएस कॉलेज के डॉ रामबाबू आर्य ने भी विचार रखे. संचालन मित्रनाथ झा ने किया. मौके पर विगत 21 मई को सेवानिवृत्त संस्थान कर्मी मो. सइम को निदेशक ने सम्मानित किया. इस अवसर पर संस्थान के लिपि वाचन प्रकाशनाथ झा, अर्जुन कुमार, अनिल कुमार, रामविलास यादव, हरिशंकर कुमार, अनुरूप मंडल, नेति कामति, मदनमोहन मंडल, कृष्णकांत झा, समीर कुमार, रूपक कुमार आदि मौजूद थे.

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