Bihar: दिवाली में दीयों की बिक्री से पूरे साल चलता था कुम्हारों का घर,अब चाइना झालरों की वजह से बदला पेशा
बिहार में कई कुम्हार ऐसे हैं जिन्हें चाइना झालरों की वजह से अब अपने परिवार को चलाना मुश्किल हो गया है. मजबूरन वो अब दूसरे धंधे से जुड़ गये हैं. पहले केवल दिवाली की बिक्री से ही पूरे साल उनका परिवार चलता था लेकिन अब डिमांड चाइना झालरों की अधिक है.
Bihar News: सहरसा जिला मुख्यालय के बनगांव थाना क्षेत्र अंतर्गत मुरली पंचायत में कुम्हार जाति के लोगों की बहुलता है. इस पंचायत में 60 से 100 घर कुम्हार बसे हैं. जो आज से बीते पांच सात साल पहले तक केवल मिट्टी के बर्तन व अन्य समान बना कर अपनी जीविका चलाते थे. लेकिन आलम यह है कि इस धंधे को छोड़ अन्य धंधा को परिवार चलाने की मजबूरी आन पड़ी है.
पहले दिवाली से ही चलता था परिवार का भरण पोषण
मुरली के 60 वर्षीय बालेश्वर पंडित बताते हैं कि पहले दीपावली या शादी ब्याह के सीजन में मिट्टी से इतनी कमाई हो जाती थी कि परिवार का साल भर खूब अच्छी तरह से भरण पोषण कर लेते थे. लेकिन बीते पांच सात साल से तो समान बनाने का मजदूरी तक का खर्चा पर निकल पाना संभव नहीं हो रहा है.
अब नहीं होती मिट्टी के दीप डिबरी की डिमांड
बालेश्वर ने बताया कि इस बार दीपावली को लेकर दो हजार रुपये टेलर देकर मिट्टी मंगाया. दीप, घूपदानी सहित मिट्टी के सामान को मेहनत कर तैयार किया, लेकिन मजदूरी और मेहनत के हिसाब से अब दीपावली को महज चार दिन बचे है, लगभग सारा तैयार किया गया दीप, डिबरी व मिट्टी का अन्य समान यूं ही रखा हुआ है.
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चाइनीज सामान ने कर रखा है परेशान
बालेश्वर बताते हैं कि दीपावली में आज से पांच सात पहले तक चाइनीज झालड़ व लाइटें एकाध घरों में लगी रहती था. जो संपन्न थे. लेकिन आज अक्सर सभी घरों में दीप, डीबिया को जलाना बंद कर चाइनीज झालड़ व अन्य प्रकाश के स्रोत को लगा कर दीपावली मना लेते है. जो हमारे धंधे को इस रास्ते पर लाकर खड़ा कर दिया है.
पुराने जमाने में दीप व डीबिया जलाने का था महत्व
बालेश्वर कहते हैं कि पुराने जमाने में दीप व डीबिया जलाने का अपना महत्व था. हालांकि केरोसिन का नहीं मिलना भी इसकी ब्रिकी कम करने का कारण था. मान्यताओं को ध्यान में रख डिमांड भी खुब रहती था. लेकिन अब लोग अपनी पुरानी सभ्यता को भूलने लगे है. जो कही न कही परेशानी का सबब है.
80 के दशक में कमाने गये थे भूटान
मिट्टी की कारीगरी में बीते 45 साल से लगे 60 वर्षीय बालेश्वर ने पीड़ा बयां करते हुए कहा कि साल 1980 में जब मैट्रिक की परीक्षा पास की थी तो घर की दयनीय स्थिति को देख वह वीजा बना मजदूरी करने भूटान चला गया. जहां छह माह मजदूरी करने पर उन्हें सवा दो सौ रुपये बचा. वह इन पैसों को लेकर लौट अपनी गिरवी लगी जमीन को छुड़ा कर्जदारों के कर्ज को खत्म कर अपना मिट्टी के धंधा को स्थापित किया, तब से लेकर आज तक वह इसी मिट्टी के समानों को बना बेच कर अपने परिवार को चलाने की जद्दोजहद कर रहा है. लेकिन खर्च तक नहीं निकलने से मायूस अब इस धंधे को अलविदा करने को तैयार है.
कुम्हार बन गया है राज मिस्त्री
बालेश्वर पंडित ने कहा कि सामान की मांग घटने और मेहनत व मजदूरी के बाद भी उचित पैसा नहीं मिल पाने के कारण अब कुम्हार जाति के लोग अपने मिट्टी के कलाकारी को छोड़ कर अन्य काम को अपनाने को मजबूर हो रहे हैं. कोई राजमिस्त्री बन ईंट जोड़ कर घर बना रहा तो कोई गाय पालन कुछ ने तो अपना दुकान खोल व्यवसाय कर जीविकोपार्जन में लगा है. परिवार व समस्या लगातार बढ़ता जा रहा है. खाने से लेकर अन्य जरुरत के सामानों की दिक्कतें बढ़ती जा रही है. इस धंधे से इन दिक्कतों का समाधान संभव नहीं हो रहा है.
Posted By: Thakur Shaktilochan