दुर्गा पूजा: भागलपुर के 115 साल पुराने मंदिर में 45 साल से बलि पर है रोक, जानिए अन्य मंदिरों का इतिहास..
दुर्गा पूजा 2023: भागलपुर दुर्गा पूजा के रंग में पूरी तरह डूब चुका है. हर तरफ भक्ति गीत और पूजा पाठ का माहौल है. भागलपुर की मंदिरों का इतिहास 100-150 साल पुराना है और यहां की परंपरा को अलग-अलग जगहों पर अलग-अलग अंदाज में निभाया जाता है. जानिए..
दीपक राव, भागलपुर
Durga Puja 2023: कभी भागलपुर शहर के दक्षिणी क्षेत्र की व्यवस्था मध्य शहर से अधिक समृद्ध थी. यहां पर मां दुर्गा की पूजा विभिन्न मोहल्लों में पारंपरिक तरीके से शुरू हुई, जो अब तक कायम है. यहां पर आज भी मां दुर्गा की प्रतिमा स्थापित की जाती है. पूजा व सजावट में कोई खास आधुनिकता नहीं दिखती है और न ही कोई ताम-झाम दिखता है. सादगीपूर्वक पूजा होती है. भक्त भी श्रद्धा से मां की पूजा करते हैं. यहां पर पूजा करने के लिए सुबह-शाम श्रद्धालुओं की भीड़ जुटती है.
मिरजान हाट में होने वाला दशहरा मेला कभी देश स्तर पर फैले गल्ला व्यवसायियों व ग्राहकों के मेल-मिलाप का अवसर हुआ करता था. यहां गोड्डा, दुमका, बांका, मुंगेर समेत सुदूर क्षेत्रों से ग्राहक व अन्य लोग राम लीला व भरत मिलाप देखने आते थे. राम लीला के लिए कलाकार बेगूसराय, दरभंगा एवं उत्तर प्रदेश से आते थे. कालांतर में गल्ला मंडी धीरे-धीरे उजड़ गयी और ऐसे आयोजनों ने भी दम तोड़ दिया. इसका एक अंश के रूप में भरत मिलाप का आयोजन आज भी देखने को मिलता है. हां, दुर्गा पूजा उसी रूप में होती है. भाजपा के जिलाध्यक्ष संतोष कुमार ने बताया कि यहां 1887 से ही दुर्गा पूजा हो रही है. इसके लिए जगह व भवन एक समाजसेवी महिला ने दी थी, जो विधवा थी.
Also Read: PHOTOS बिहार के भागलपुर में चुनाव आयोग की बड़ी बैठक, एक दर्जन से अधिक जिलों के डीएम हुए शामिल.. मानिकपुर दुर्गा स्थान में चैत्र व शारदीय नवरात्र पर पूजनमानिकपुर दुर्गा स्थान में अलग-अलग आयोजन समिति की ओर से मां दुर्गा की पूजा धूमधाम से होती है. अध्यक्ष हरिशंकर सहाय ने बताया कि छठी पूजा पर मां दुर्गा की प्रतिमा को वेदी पर स्थापित की जायेगी. सप्तमी को माता का पट खुलेगा. दूसरी पूजा से माता का जागरण शुरू हो गया. परंपरा वर्षों से चली आ रही है.
माता के प्रताप से मिला संतान, शुरू हुई मां की पूजामोहद्दीनगर दुर्गा स्थान का इतिहास 110 वर्ष पुराना है. जमींदार स्व. कमलधारी लाल ने पूजा की शुरुआत की थी. समाजसेवी ध्यानेश्वर प्रसाद साह ने बताया कि उनके यहां संतान नहीं होने पर दुर्गा मां की पूजा की गयी. इसके बाद संतान हुआ. तब से ही उन्होंने यहां पर पूजा शुरू कर दिया. 1953 में आमलोगों ने मंदिर का निर्माण कराया. यहां पर सभी के मन की मुरादें पूरी होती है. अध्यक्ष राकेश रंजन केसरी ने बताया कि मोहद्दीनगर में 40 वर्षों से कला की महफिल सजती है. छठी या सातवीं पूजा से दशमी तक सांस्कृतिक कार्यक्रम की धूम होती है. एकादशी के दिन समाज की महिलाओं व बच्चों द्वारा डांडिया नृत्य करते हुए विसर्जन शोभायात्रा निकाली जायेगी.
हुसैनाबाद में महाशय ड्योढ़ी के बाद शुरू हुई पूजाहुसैनाबाद में महाशय ड्योढ़ी के बाद मां दुर्गा की पूजा शुरू हुई. यहां भी स्थान पर ही मां की पूजा होती है. पारसलाल ने मां दुर्गा की प्रतिमा स्थापित की थी. दशमी को सांस्कृतिक आयोजन होता है. इसमें अलग-अलग स्थानों के कलाकार प्रस्तुति देते हैं.
मंदरोजा में 45 वर्ष पहले बलि प्रथा पर लगी रोकमंदरोजा दुर्गा स्थान की स्थापना को सौ वर्ष से अधिक हो चुके हैं. यहां 1905 में दुर्गा उपासक भगत जी ने दुर्गा स्थापना करायी. मंदिर के लिए जमीन महाशय ड्योढ़ी से दान में पांच वर्ष बाद मिली. लहेरी टोला को छोड़ कर आसपास के क्षेत्रों सराय, उर्दू बाजार, रामसर, कंपनीबाग, गोशाला, नयाबाजार आदि स्थानों के श्रद्धालु भी इसी दुर्गा स्थान से जुड़े थे. जो अब अलग-अलग स्थान स्थापित होने के बाद वहां से जुड़ गये. जमीन मिलने के 10 वर्ष बाद उस समय समिति के जुड़े लोग केशो साह, बनारसी साह, रूपलाल महतो, राम प्रसाद राम ने मिल कर करायी थी. यहां पर वैदिक विधि-विधान से पूजा-अर्चना होती है. यहां 45 वर्ष पहले बलि प्रथा समाप्त कर दी गयी.
11 देवी-देवताओं के साथ यहां विराजती हैं मां दुर्गालहेरी समाज के लोगों के सहयोग से 150 वर्ष पहले दुर्गा पूजा शुरू की गयी थी. उस समय मिट्टी व फूस का मंडप था. 1946 में मंदिर का पक्कीकरण कराया गया और 1994 में मंदिर का पुनर्निर्माण कराया गया, लेकिन आज तक प्रतिमा व विधि पारंपरिक ही रखी गयी. लहेरी टोला दुर्गा स्थान में वैदिक विधि-विधान से मां की पूजा तो करायी ही जाती है. 1994 में ही 11 विभिन्न देवी-देवताओं की प्रतिमाओं का स्थायी निर्माण कराया गया. 1970 में एक बार प्रतिमा के आकार व मॉडल में बदलाव करने का प्रयास किया गया था तो तत्कालीन मूर्तिकार प्रतिमा निर्माण करने में अक्षम हो गये. उन्हें यह समझ में नहीं आया कि प्रतिमा किस स्वरूप में बनायी जाये. माता की साज-सज्जा मुर्शिदाबाद के उसी वंश के कलाकार डेढ़ सौ वर्ष से कर रहे हैं. यहां पर वैष्णव ढंग से पूजा होती है और निशा पूजा के दिन कोहढ़ा की बलि पड़ती है. ऐसी मान्यता है कि आसपास कोई भी गलत कार्य करते हैं तो मां उन्हें तुरंत सजा देती है. छह पूजा को माता की प्रतिमा को पिंड पर लाया जाता है. फिर सामान्य रूप से मां की पूजा विजया दशमी तक होती है. इसके अलावा उर्दू बाजार, कंपनीबाग, भैरवा तालाब परिसर आदि में मां दुर्गा की पूजा बिना ताम-झाम दुर्गा स्थान में होती है.